पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष विंशति भाग.djvu/४७९

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४८६ बड़लाभापा केदारभट्ट और मलयगिरिने लिए है, कि 'भगवान् , मागधी या सब प्रामन भायका ही प्रकार भेट है। पाहत देखो। पाणिनिने प्रातका लक्षण भी प्रकाश मिया है। वह संस्कृतसे भिन्न है। उसमें दीर्घाक्षर कहीं कहीं हम्ब आ पहले कर आये है, कि भारतवर्णमें प्रारुन भाषा करता है। इस प्रमाणसे जाना जाता है, कि पाणिनिके! वन पहले ही कथित मापारूपमे प्रचलित थी। देश- ममय प्राकृत एक स्वतन्त्र भाषा समझी जाती थी। किन्तु भेदरले उस प्राकृनमे भी योगा वरन प्रभेद था। भिन्तु इस भाषाकी लिखित भापास्में गिनती न रहने के। जव यद प्रागन लिगित भापारूपमें प्यवहारयोग्य एई, कारण यह उस समय पुष्टिलाभ न कर सकी। पाणिनिकेतव आवश्यकतानुमार नपारका भी प्रयोजन हुआ था। समय 'प्राकृत' प्रचलित रहने पर भी वह आर्यसाधारण- उस मंकन प्रारत मापाने ही पालो, मागधी या अर्द्ध- की स्वीकृत भाषा न समझी जाती थी. पोंकि पाणिनिने ' मागधीरूपा पहले लिखित मामा म्यान अधिकार दिया। अपनी अष्टाध्यायीमें 'छान्दम' और 'भाषा' इन दो शब्दों । गौटयानी उत्पनि। द्वारा 'वैदिक' और अपने समयमें प्रचलित पौमित ! प्राजन शकरण के अनुसार प्राकृत भाषा प्रधानतः संस्कृत' भापाका ही उल्लेख किया है। अतपय उनके । नंस्कृतमय, संम्नमम और देशी रन तीन श्रेणियों में ममय भी संस्कृत-युग चलता था । यह संम्त युग क्य विभक्त है। इन तीन श्रेणियों में मध्य पालीको "तत् तक चलना रहा था, उसका आज तर पता नहीं चला। सम" तथा अर्ज मागधीमो "तब" श्रेणीमे गिन माने है। पर इतना जर है, कि बुद्धदेवके समय अर्थात् प्रायः । में। परवर्तीकालगे उन दोनों प्राकृत भाषाके प्रभाव ढाई हजार वर्ष पहले संस्कृत जनसाधारणजी कथित विभिन्न प्रधानको लिखित प्रारत भाषाको पुष्टि हुई। भाषा न समझी जाती थी। इस मामय जनमाधारण जो भरतके मतने मग्कृत, प्राकृत, आनंग और मिश्र ये भाषा समझते थे, उसका नाम 'गाथा' रखा गया। अभी । चार भाषा हैं। चण्डाना ने अपने "प्राकृत लक्षण में इस नापाको ठोक संम्मत नहीं मान सकते। उस भाषा- प्राकृतभाषाको प्राकृत, मागधी, पैशाचो और अपभ्रश की रीति संस्कृत व्याकरणमङ्गत नहीं है। इस कारण ! इन नार भागों में विभक्त दिया है। वररनिके प्रारत- हम लोग इसको टी फूटी संस्कृत मान सक्ने हें। उम प्रकाश में लिग्दित प्राकृत मागधी शौरसेनी महाराष्ट्रो और समय ब्राह्मण पण्डितोंके निस्ट विशुद्ध सस्कृत भाषाका पैशाची इन चार भागों में दिमन गई है। प्रचार रहने पर भी जनमाधारणके निगट गाशाही हेमनन्द्राचार्याने अपने प्राकृत व्याकरणमें आई- चलित भापारूपमें गिनी जाती थी। सम्राट अशोकी मागधीको 'आर्ण प्राकृत' के मध्य शामिल किया है। उस समय प्रचलित प्रादेशिक भाषामे जो सब अनु- (२०१०) फिर चण्डानायके मतानुसार अर्द्धमागधी, शामन निकले हैं, वे गाथाले कल ग्वी और पली | महाराट्री और शोरसेनीका प्राचीनपरी आर्गप्राकृतके भापाके पूर्वतन प्रानले नमझे जाने हैं। जैपा गिना ना सस्ता है। किन्तु प्राकृतचन्द्रिकाकार ___ दौद्ध और जैनोंके सुप्राचीन धर्मग्रन्यासी भापा कृष्णपण्डितने आर्णप्राकृतको स्वतन्द बतलाया है। उनके आलोचना करनेने भो अच्छी तरह जाना जाता है, कि मतसे आर्ण, मागधी, गौरसेनी, पैशाची, चूलिका उस प्राचीन गाथासे हो पाली, मागधी और अद्धमागधी। पेशाची और अपभ्रंश ये छः प्रकार मूल प्राकृत हैं। भाषा परिपुष्ट हुई है। उन सब प्राकृनोंका प्रचार जब भारतव्यापी हो गया, वररुचि आदि वैयारणों के मतले मागधी, अर्द्ध- तव फिरसे भारतके नाना स्थानोंको प्रचलित प्राकृत धीरे धीरे प्रारुतक आदर्श पर और देशी शब्दक मेलसे

  • केदारभट्टकी उक्ति दम प्रकार है-

लिखित प्राकृत मध्य स्थान पाने लगी। इस प्रकार "पाणिनिर्भगवान् प्राकृनम्नक्षामपि वक्ति सस्कृतादन्यत् | हवा और १०वा सदामें हम लोग बहुतों प्राकृत भापा- दीर्वाक्षरस्य कुत्रचिदेका मात्रामुपति ।" का उल्लेख पाते है।