पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष विंशति भाग.djvu/५२३

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५३० बङ्गला साहित्य जा र दो वर्ष तक रसायन नया उद्भिशास्त्रका उप । किंतु इन दोनों की रचनाये एक ही भावसे प्रथित नहीं देश ग्रहण किया। १८५५ ई० मे अक्षय बाबू तत्त्वबोधिनी है। एकही रचना कोमलतापूर्ण एका दुसरेकी उच्छास- का सम्पादन-कार्य एक प्रकार त्याग कर १५०) रपये उहीपनी है। एन यदि लावण्यमय पूर्ण है, तो दूसरी वेतन पर कलकत्ता नार्मल स्कूलमे प्रधान शिक्षकके पट । ज्यालामय मध्यान तपन, एक प्रशान्त भाव से हृदय पर नियुक्त हुए। किन्तु दो तीन वर्षकै थन्टर ही उनकी निन्ध करती है तो दूसरी प्रमन भाव मे दृदय प्रदान पूर्व संचित शारीरिक पीडा नृद्धि पा कर उन्हें पक वार करती है। किंतु दोनों होके रचे हुए माहित्य बगरेजी हो अकर्मण्य बना दिया। अक्षर बाबू के लिये दर ग्रन्यो- माहिन्या ऋणी है। इनमें मी अक्षयकुमारका साहित्य में तीन भाग चारपाठ, दो माग वास्तु के माय अगरेजी माहिन्यका अपेक्षाहन अधिक ऋणी है। मानवप्रकृतिका संबन्धवि बार, धर्मनीति, पदार्थविद्या क्योंकि उनके अधिकांश अन्य नया प्रबन्ध अनरेजीके ही नथा भारतवपीय उपासम-सम्प्रदाय,-ये कई एक । अनुवादमात्र हैं जयवा उन अनुवाद, मौलिमत्वका पुस्नमें उल्लेखनीय हैं। प्रथम नया द्वितीय भाग "वाह्य । पूर्णभाव विराजमान है, पढ़ने के समय वह अनुवाद-सा वस्तुके सहित मानवप्रकृतिका संदन्धविचार' तथा विलकुल ही जान नही पड़ता। धर्मनीति ये तीनों ही पक ढगकी पुस्तके है । कुम्ब इस समय बंगलासाहित्यक्षेत्रमे और एक महारथी माहवकी लिग्नी हुइ "काष्टट्युसन" नामक पुस्ताका का आविर्भाव दृया। उन्होंने व गलाके पदय-साहित्य सार सदन के प्रथमोक्त ग्रंथके दोनों मात्र ग्ने गये पक विशाल युगान्तर उम्धिन किया । इनका नाम थे। अमर बाबूको प्रायः समी पुस्तकों में अधिकतर अगा- माइकल मधुमूहन इत्त था। ये शर्मिष्टा नाटक, पद्मावती रेजी गट हा बंगलामे अनुवादिन है। नाटक. तिलोनमासमव. पके है कि दोले मभ्यता, बृडो ___ माग्नबपोय "उपासक सम्प्रदाय" प्रच विलनन । न शालिकेर घाडे रों, मेघनादवच, व्रजांगना, कृष्णकुमारी साहाने लिग्बे हुए 'रेलिजियम सेकृम आफ हिन्दुज' नाटक, वीरांगना, चतुर्दशपदी कवितावली तथा हकार नामक ग्रंथ के आधार पर रचा गया है। इसमें नारत. वध, इन ३१ प्रयोके रचयिता थे। इनमें शर्मिष्टा, पद्मा- वीय धर्मसंप्रदायका सशिन परिचय अति सरल तथा । बता तथा कृष्णकुमारी, ये तीनों नाटक है। "एके कि सुन्दर भाषामे दिया गया है। १८८६ ईको २वीं मई... । बोले सम्यना" नया "वृढो शालिकर घाडे रों" ये दोनों का अक्षयकुमार दत्त महाशय पग्लो सिधारे। हो हास्वरसोद्दीपक अभिनयकी पुस्तिकाये है। विद्यासागरने जिस तरह बंगला गद्यको प्रावट किया तत्चबोधिनीके संपादन-कार्यले अक्षयकुमाग्ने उमे उसी निलोत्तमासंभव तथा मेघनादवय घे दोनों काथ्य तरह ओजस्विनी बना दिया। सामरिका गद्य आवेग ग्रंथ आद्योपान्त अमिताक्षर छन्दमें विरचित है । बागला मय तया उद्दीपनापूर्ण है । विद्यासागर तथा अक्षर माहित्यमें अङ्ग्रेजी प्रभावका उत्कृष्ट उदाहरण दिग्वाने के कुमारने वगलागदयमे जिस जीवनीशक्तिका सभार कर लिये 'मेघनादवध' काव्य ही उसका उज्ज्वलतम उदा. बंगलामायाको योजखिनी बना डाला है, उनके परबत्ती हरण है। उसका छन्द यूरोपीय, भाव यूरोपीय, रचना लेचकोंमे कितने ही उसी शादर्शका अवलम्बन करके रीति यूरोपीय, स्थान स्थान पर उपमा उपमेय प्रभृति पंथ रचना करने है। पूर्वा- गाल के साहित्यग्थी काली। अचालङ्कार भी यूरोपीय ढगक है। फलतः अन्धकार प्रसन्न घोय महामायने उक्त दोनों महात्माओं के प्रदर्शित यूरोपीय सांचे में बगलामायाके इस सुप्रसिद्ध काव्यका पसे विचरण करके इस भापाकी यथेष्ट पुष्टि की है। प्रणयन करके अमरकीचि स्थापन कर गये है। विद्यासागर तथा अक्षयकुमार दोनों ने ही संस्कृत मधुन्दनके पूर्ववत्ती बंगाली कवि ईश्वरचन्द्र गुम भापाके गन्होंने बंगला गद्यम सजा कर उसे भुवन-थे । उनको कविताओंम विशुद्ध जातीय भाव तथा जातीय मोहिनी एक शन्द्रसम्पदामें ऐश्वशालिनी बना दिया है, रीति विद्यमान थी, किन्तु माइकेल मधुसूदन दत्त महा-