पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष विंशति भाग.djvu/५२५

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वाला साहित्य वाष्टक भूदेव बाव भी अंगरेजी प्रथाके आधार पर उपन्यास , जा रहा है। बगला पदयनाहित्य बहुत पहले ही यथेष्ट लिसनेमें प्रात हुए थे । पाश्चात्य विद्याले पारिडत्य ' उनतिका परिचय दे चुसा था, किन्तु गद्यसाहित्यको लाभ करके देशीयमापाके अनुशीलन, जातीय साहित्यकी' वैसी उन्नति त्यो शताब्दीक प ले परिलक्षित नहीं हुई सेवा तथा पाश्चात्य आदर्श लक्ष्य कारके स्वदेशमी सेवा थी। १६वीं शताब्दीक प्रारम्ममें जिम साहित्यका वकिमचंद्रकी प्रतिमामे पूर्णरूपसे विकशित हो उठी थी। प्रचार हुआ, यह मादित्य उन्म शताब्दीये. शेष भाग तक विमचन्द्र चंगीय साहित्यमें नृतन शुगके प्रवर्तक थे। ग्वना गीग्यमे उसन, भाव प्रवाहमे समृद्ध तथा फतिपय उनकी प्रन्थावली में नृतन भावकी सृष्टि, नूतन चिन्तागे: विषयोंग परिपुष्ट हो चुका था। यदि सन पूला लाय पुष्टि पवं अभिनव कल्पनाका युगपत् आविर्भाव देख कर तो वर्तमान वागला गद्यसाहित्यकी आमातीन उमनि चंगदेश के कोने कोनमें आनन्द रव गूंज उठा था। ई है। __ वदिमचन्द्रकी मौलिकता, उस तरहकी कल्पनाको । बगशुल्वज ( स० क्लो०) बङ्गशुन्याभ्या रहताम्राभ्या आयने कमनीय लीला, उस तरहकी सौन्दर्य तथा लावण्यच्छटा, जन ड। काँस्य धातु, कामा गगे और तबिके योगसे उस तरहकी मधुमयों रचना तथा गल्पचतुरतावंगीय : यह धातु तैयार होती है, इसीलिये इसका नाम बद्न- गद्यमाहित्यमे और कहीं भी दृष्टिगोचर नहीं होती। शुम्बन है। वटिमचन्द्रने अंगरेजी साहित्य तथा देशीय मांस्टत । बलसेन (सं० पु०) रक्त कक्ष, लाल फूलवाला अगर । साहित्यसे जो सम्पद संग्रह की थी, जो बल तथा ' बनानेग-१ धातुरूप या सारयातयारणके प्रणेना। उद्यम प्राप्त किया था एवं उनसे जो माधुर्य तथा सौन्दर्य । २ त्रिरित्सासारसंगर और बदसेन नामक वैद्यमके उनके हृदयमै उदासित हो उठे थे, जो स्वदेशानुराग रचयिता । टन पिताका नाम धा गदाधर । कालिका उनके चित्तक्षेत्र में उपास्य देवताकी तरह विराज रहा था, नगरमें इनका वास था। उन्हीं सब भावोंको वे अपने साहित्यमे प्रतिफलित , बलाधिकश्रमण-अतीचारसूत्र के प्रणेता। कर गये है। शेप जीवन कालमें वदिमचान्द्र महामायने बद्गारि (सं० पु.) बङ्गम्य रङ्गधानोरविरः पम्य बड़ कई एक धर्मसम्बन्धी मंथोंका निर्माण किया था। धातोर्जारकत्वात् तथात्वं । हरिताल, हरताल। ___उस समयसे ही बंगसाहित्य वास्तविकमे शतमुन्बो, बङ्गालिया (सं० स्त्री० ) व गाली देखा। गंगाप्रवाहकी तरह उच्छलिन तरंगोंसे परिपूर्ण विशाल बङ्गाली ( स० सी०) व गाली देखो। याकार धारण करके उन्नतिकी ओर प्रधावित हो रहा है। बड्डापलेह (सं० डी०) प्रमेदरोगमे अवलेहविशेष। दो इस समय हेमचन्द्र वन्द्योपाध्याय, द्विजेन्द्रनाथ ठाकुर, रत्तो रांगेकी भस्मको मधुके साथ पीछे दो तोला गुड चन्द्रनाथ वसु, महामहोपाध्याय श्रीहरप्रसाद शास्रो पूर्ण- और गन्ध सेवन फरावे। इससे प्रमेहरोग आरोग्य चन्द्र वसु, शिशिरकुमार घोप, नवीनचन्द्र लेन, श्रीयुत- ' होता है। (रसेन्द्रसारस० ) रवीन्द्रनाथ ठाकुर प्रभृति प्रधान साहित्य महारथियोंने बनाष्टक (सं० क्ली० ) प्रमेहरोगमें व्यवहार्या औषधविशेष । वंगमाहित्य तरंगिनीके धारा-प्रवाहको गौरव गर्वसे परि- प्रस्तुत प्रणाली-पारा गन्धक, लोह, रूपा, खार, अवरक पुष्ट कर दिया है। वर्तमान गद्य साहित्य प्रधानतः वद्विम । और ताँवा प्रत्येक समान भाग तथा सभोके बराबर रांगा चन के आदर्शसे एवं वर्तमान पय साहित्य प्रधानतः इन्हें एकत्र कृट कर गजपुट में पाक करे, पाछे औषध श्रीयुक्त रवीन्द्रनाथके प्रभावसे प्रभावान्वित हुए हैं। शीतल होने पर उतार ले । इसकी मात्रा २ रत्ती और बंगसाहित्यके वर्तमान युगका इतिहास अभी भी! अनुपान मधु, हल्दीका चूर और आँचलेका रस है। इसका लिग्बनेका समय उपस्थित नहीं हुआ है। इस समय भी सेवन करनेसे बीस प्रकारका प्रमेह, आमदोप, विचिका, पूर्ण उद्यम में, भाव तथा भाषाको विचित्रतामें वंगीय- विषम ज्वर, गुला, अर्श, मृतातीसार आदि रोग विनष्ट साहित्य क्षण भणमें उत्कर्ष सागरकी ओर प्रवाहित होता होते है।