पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष विंशति भाग.djvu/५३९

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वज-वट वक्ष (स' नि०) वन्च ण्यत् (वञ्चेर्गती। पा ७३६४) इति वटवृक्षकी शीतल छाया आतपताप क्लिष्ट पथिकोंके तप्त न कुत्वं । गमनीय, जाने लायक । हृदयको शीतल करतो है एवं ग्रीष्म ऋतुकी कडी धूप- वचनाचल-पर्वतभेद । में प्रयास करनेवालोंके पक्षमे सभी वृक्षोंकी अपेक्षा वक्षरा (सं० स्त्रो) नदीविशेप। इसकी छाया अधिक आनन्दप्रद होती है। कर्नल वजुल (स'० पु०) वजतीति वज गतौ वाहुलकात् उल्च, | साइकसने नर्मदा नदी वक्षस्य एक छोटे द्वीपके अन्तर्गत नुम् च । १ तिनिश वृक्ष । २ अशोक वृक्ष। ३ स्थलपद्म एक सुवृत् वटवृक्षका उल्लेख किया है। वह जन- वृक्ष । ४ पक्षिविशेप । ५ वेतस वृक्ष, बेतका पेड। साधारणमें 'कवीरवट' के नामसे प्रसिद्ध है। कितने तो वजुलक (सं० पु.) १ वृक्षभेद । २ पक्षिभेद । उसे वही सुप्राचीन वृक्ष समझते हैं जिसका वर्णन वजुलद्र म (स० पु०) वजुलो द्रमः। अशोकवृक्ष। Nearchus ने अपने अन्धमे किया था । पूनाकी वञ्ज लप्रिय (सं० पु०) वन्जुलस्य प्रियः, वञ्जुलः प्रियश्चेति | (Gaz, Vol. XVIII ) अन्ध्र उपत्यकान्तर्गत मउ ग्राममे कर्मधारयो वा । चेतसवृक्ष, वेत् । एक बहुत विस्तृत वटवृक्ष था। उसको छायामे २० वजुला स० स्त्री०) वजुल टाप । १ अतिशय दुग्धवती हजार मनुष्य स्वच्छन्दतापूर्वक बैठ सकते थे। इस चुक्ष- गाभी, दुधारो गाय । २ एक नदीका नाम जो मत्स्यपुरा की परिधि प्रायः २ हजार फीट एवं उसकी डालोंसे णानुसार सह्याद्रि पर्वतसे निकलती है। जितनी बरोह ( Air roots) नोचे आई हैं, उन सबोंसे वजुलावती (स स्त्रो०) एक नदीका नाम जो दाक्षिणा ३२० बरोहोंने तो मोटे मोटे स्तम्भ की भाँति आकार त्यके पर्वतसे निकलती है। धारण कर लिया है एवं विशिष्ट प्रायः तीन हजार पतली वट ( स० पु० ) वटति वेष्टयति मूलेन वृक्षान्तरमिति | जटाएं मृत्तिका संलग्न हो रही हैं। उन जटाओं- वट पचाद्यच । स्वनामख्यात छायावृक्ष, वरगदका पेड़। के मध्य ७ हजार मनुष्य अनायास हो छिप सकते थे। (Ficus Bengalenesis syn Ficus Indcia) स्थानीय | नर्मदाकी भोपण वाढमें उस द्वोपका एकाश धस जानेले नाम-हिन्दी-वर, वड, वरगद , महाराष्ट्र-बट, यह वृक्ष भी नष्ट हो गया । कलिङ्ग-आल , तैलङ्ग-मरिचेट्ट, मारि, पेडि मरि , एतद्भिन्न कलकत्ताके निकटवर्ती शिवपुर प्रामस्थ उत्कल-वोरु, वङ्गला-वड, वट, कोल-वोइ, लेपछा रायल बोटानिकल गार्डेनमें एव वम्बई प्रदेशके सतारा काति, मलयालम्-पेर, पेरलिनु, गोड-वरेली, उत्तर उद्यानमे इस तरहके दो वटवृक्ष हैं। शिवपुर भैपज्य पश्चिम-बोरा, कुकु, नेपाल-वोरहर, पस्तु-वागात् , उद्यानके संरक्षक डाक्टर किंग विशेष पर्यवेक्षण करके हजारा-फगवाडी , फनाडी-आलव, आनद, आल , | कहते हैं कि, यह वक्ष १ सौ वर्षसे भी अधिक प्राचीन ब्रह्म-पित न्यौग , शिङ्गापुर-महानुग , अगरेजी । यह १७८२ ई० मे एक खजूर वृक्षके ऊपर पैदा हुआ वैनियन द्रो । Banyan tree ), संस्कृत-पर्याय था। उसकी २३२ जड़ें गोल गोल स्तम्भ के रूपमे न्यग्रोध, यहुपात्, वृक्षनाथ, यमप्रिय, रक्तफल, शृङ्गी, कर्मज मिट्टोसे मिलती हैं। उनमें मूलस्तम्भ ( काण्ड )का ध्रुव, क्षीरी, वैश्रवणावास, भाण्डोर, जटाल, रोहिण, । व्यास प्रायः ४२ फीट है। इसकी पलसमाच्छादित अवरोही, विटपी, स्कन्दरुह, मण्डलो, महाच्छाय, भृङ्गी, शाखा प्रशाखाओंको छाया परिधि लगभग ८५७ यक्षावास, यक्षतरु, पादरोहण, नोल, शिकारुह, बहुपाद, फोटकी है। अभी भी यह वृक्ष उत्तरोत्तर वढना जा वनस्पति । रहा है। एव और भी बढ़नेकी आशा की जाती है। हिमालयसे ले कर दक्षिण भारतके प्रायः सभी स्थानों १८८२ ई०मे सताराके वटवृक्षका परिदर्शन करके मि० में यह वृक्ष उत्पन्न होता देखा जाता है। साधारणतः यह बानेर साहब लिखते हैं, कि यह वृक्ष कलकत्ताके वटवृक्षसे ३०से १०० फीट तक ऊंचा होता है एव शाखा-प्रशा- कही वडा है। उसकी परिधि १५८७ फोट है एवं वह उत्तर खाओले परिपूर्ण हो कर दूर दूर तक फैल जाता है। इस दक्षिण ५६५ फीट तथा पूरव-पश्चिममे ४४२ फीट है।