पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष विंशति भाग.djvu/६१३

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वरुण स्थलगे वरुणको सर्वश्रट, राजा और शक्तिमान् तथा| दोनों अश्विको एकल सवाविशिष्ट हो कर यहमें मिलित स्तोतविशिष्ठ देवता कहा है अथर्ववेद में भी इन्हें देय- देख पाते हैं। शाङ्कायन श्रौतमूल (२२२०१४ ) में इसी तामो का मुख्य बतलाया है। प्रकार विष्णु-वरुणका संयोग और पकाधानत्व यर्णित "सोमाभग इथ यामेयु देवेषु वरुणो यथा।" है। गोभिल ३।६१२ सूत्र में यमवरुणका पकयोगत्व (मथर्व वेद ६।२१।२) तथा भावयनत्रामण १८३१० और प्रात्यायन श्रौतसूत्र कम हिताये. ८४१ और ८९२ सूक्तमे वरुणदेव- (१०८।२७ ) में अग्नि वरुणको एकाधारत्व यतलाया की स्तुति है । ५८५ सूक्तक मन्त निचयमे अनि गया है। क ४१२ मन्त्र में अग्निवरुणका सग्वित्व और अपिने वरुण देवताका इस प्रकार स्तब किया है, वे भ्रातृत्वसम्यन्ध आरोपित है।। निम्मिल, भुवन अधिपति है और वृधिपात द्वारा पृथिवी, अथर्ववेटके 'इन्दन्द्र मनुष्याः परेहि म माम्यावरुणे अन्तरीक्ष गौर स्वर्गको आई करते है ।' हम ऋक्के संविदान।" (अथार्च १४६) मन्त्रमें इन्द्र और वरणका मात्र रहनस स्पष्ट जान पड़ता है, कि सनक्तिमान् पफमतित्व स्थिर किया गया है। इस प्रकार बाजमनेय परमेश्वर ही वरण है। ईश्वरकी कार्यावली स्वतन्त्र संहितामे इन्द्र और वरुणका एकत्व देखा जाता है। ये मभिवाको प्राप्त होकर वरुणमें मारोपित हुई है। , सब देवताओं के सम्राट है, अतएव वे इन्द्रावरुण मित्रा. मृग्वेरके पियों ने प्रकृतिकी विस्मयफर कार्यपसारा वरुणकी तरह ईश्वरको छोड़ कर और कोई भी नहीं हो देख कर वरुण पन्द्रादिव स्तम्सकी कल्पना की थी। सकते। परन्तु स्थानविशेषमे उन्हें मित्र, अग्नि, रन्द्र, पांछे उन्होंने उसकार्यपगमाराकी एकता समझ कर ईश्वर यम वा वायुके साथ पेशर्म सम्पादन परते देग्न उनके का एकत्व हृदयमें अनुभव किया। ये सूर्य द्वारा मन्त- मौलिफ ईश्वरत्वको कुछ विशयता निर्दिष्ट हुई है, संघल रोक्षका परिमाण लेते हैं (५१८५।५ ), घे हो सभी नरियों यही जा सकता है। को एक महासमुद्रमें ग्रेरण करते हैं, फिर भी वह महा. ऋग्वेद के १२१२६-१३६ सूक्तके मन्त्र पढनेले उनमें समट नहीं भरता (पाटा). फिर वे ही मनुष्यका पाप| कुछ भी विशेषता मालूम नहीं होती चरं उनका एकत्त विनाश और अपराध खण्डन करते हैं। उन्होंने सूर्यके | ही निष्पादित होता है। ऋक् ॥१६॥६-७ मन्त्रमें लिखा अस्तरणार्थ तथा वृक्षोंके ऊपर अन्तरीक्षको विस्तारित | है कि, "मैं सूर्या, पृथिवी, आकाश, मित्र और वरुण तथा किया है, ये मश्वगणके बल है, धेनुगणको दूध और वृदय- रुद्रको नमस्कार करता। ये सभी भिमत फलदायो में सकल्प दान करते है। उन्होंने ही जलमे अम्निको, और सुखदायी हैं। इन्द्र, अग्नि, अर्यामा और भगका अन्तरीक्षमे सूर्याको और पर्वत पर सोमलताको ग्थापन स्तब करो। * * * हम लोगोंने इन्द्रको पाया है, पिया है।' इत्यादि स्तुति देख कर अनुमान होता है, कि • * * इन्द्र अग्नि, मित्र और वरुण हम सर्वोके धर्मपरायण वैदिक ऋषिगण वरुण और ईश्वरको एक सुखप्रद होवें, हमलोग अन्नवान् हो कर जिससे वह और अभिन्न पतला गये है। समुपभोग करें। १।१५३ सूनामे इन्द्र और वरुणका __इस एक्त्वके कारण ही १।१३६-१३७ सूक्तम परुन्छेप ऋयिनं, १६६५१-१५२सूक्तमे दीर्घतमा पिने तथा ऋग्वेद + "स भ्रातरं वरुयामग्न आ ववृत्स्व से ६३-६६ सूक्तमे वशिष्ठ ऋपिने प्रातःकालमे मित्र मौर अच्छा सुमती यज्ञवनस ज्येष्ठ यज्ञरनसम् । पदणका स्तुतिमन्द्र गाया है। वे नामपार्शमयमें जगत् भूतावानमादित्यं चर्पणीधृत राजान चक्षणीधृतम ॥ के भिन्न भिन्न महलजनक क्रिया करनेवाले है सही, पर सखे ससायमभ्या ववृत्स्यापट न चर्चा मृल में एक महान् ईश्वरको छोड़ कर और कुछ भी नहीं रध्येव रसास्मभ्यं दम रखा। है यह स्पष्ट जाना जाता है । यही कारण है, कि हम लोग बग्ने मातीक वरुणे सचा विदो मासु विश्वभानुषु ।' - ऋक्संहिताके १२१५६१४ मन्लमें विष्णु भौर वरुण तथा (अक ११।२३)