पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष विंशति भाग.djvu/६१४

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वरुण ६२५ - मोहचण चित दुआ है इसके द्वारा इस दवतामण्डलो ” मलक"भवस्य राजे| वरुणोऽधिराज ' पदमें यह वाफ्य का परत्व और इयरय स्पष्ट प्रतिपादित होता है फिर, नेमर्थित हुमा है। शुक्ल यजुर्वेद के ८।३७ मतमें इन्द्रश्य सम्रावरुणश्च | " अयनवेदक १।१०।१ मन्त्रम वरुणको दोप्तिशाली और सपा ती ते मक्ष चातुरन पर्नेम्।" पढनसे मालूम होता। सत्यमायणशील कहा है। अनृनादि वोल्नेक कारण उनके है,जिदानों पर हो है। उमक माध्यम महाधरने कोपमें पडनेसे मय थोडे ही दिनो म जलोदरादि रोग लिम्बा है,-'ती देवी दणीत तवं पत सोमम प्रथम से नाकात होते हैं। ग्रामन द्वारा वा यरुणविषयक " मक्ष चनु । ती कौन्द्रिों वरुणश्च चारी ममुध स्तुतिरूप इति द्वारा वा अति तीक्ष्ण स्तोत्रादि द्वारा क्म्मूित र सम्राट् परमेश्वर्ययुक्त याजपेययोजोत्थ ।। उहे प्रमान करनेसे राग दूर होता तथा घलको वृद्धि विभूतो प्रेरणा राजा रानसूपयानो राजा चै राजसूर्य | होती है।' नेष्ट्या मरति सम्राट्वाजपेपेनति पते ।' ऐतरेयत्राह्मण (१।४४ ) पढनेमे जान पडता है, कि

  • सहिताय ११३६।२ मन्तम उपा कर्त,फ रहेगक ? लाधिपति देवराज वरुण दिक्पालरूपमें असुरोंक साथ

घर प्रकाशित हानेसवात लग्वा है। शुक्लयजुर्वेदका लडे थे। आदित्योंने उा साथ अप्रसर हो कर देय 'पत्यासु चक्र वरुणः सरस्थRपा शिशुर्मातृतमाम ' ताओं भय दूर किया था। उत्त प्रग्ध (११४ १५) क मन्त" (2015) म पनेस नाना पाता है, कि समुद्र पार हरिवद्र उपारयानमे लिखा है, कि पेक्ष्वाकु राजा हरि जलगर्भ हो यम्र्णका घर है। वे जल्फ शिशु है, जर ही शद्रने नारदके आदेशस पुत्रकामा हो वरुण देवको उनका निवासस्थान है। उम मक भाष्यम महोघरने तपस्या की। भाराधनासे तृप्त हो कर वरुणदेवने उन्ह लिया है-या पम्विधा नापस्तासुभातमध्ये यरुणो माना दर्शन दे कर कहा 'राजन् । यर मागो, तुम्हारी दयः मधस्य महत्थान बने हतया सद म्यीयते यस्मिन तपस्योंसे में सतुष्ट हो गया है।' राजाने पुत्रक लिपे तत् मधस्थ। जिम्मूनो यरुण 'अशिश पालक मत प्रापना की। इस पर वरुणदेयने कुछ मुसकुरा कर या पर शिशुभपति पे राजसूपन यजत इति धते किंम्भ । कहा, 'तुम्हारे एक पुत्र होगा, कितु उस पुत्रको तुम तास्यप्सु पस्त्यामु। पयमिति गृहनामसु पैठितम्।। नि शङ्क चिससे यशोय पशुरूपम मुझे प्रसन्न करनेक लिये गृरूपासु मपामाधारत्वात् तथा मातृनमासु अति । बलि देना। राजान इस स्वाकार कर लिया । कुछ समय शपेन नगग्निर्माता। । - - उक्त सहिताफ ६२२ मन्त्रम यरुण पाशसमपित . ऋग्वदमें कई जगह वरुपको मुमत्र या क्षत्रिय कहा है। 'स्था भयभीत मानी मुनिप्रार्थनाको पात इम प्रकार किन्तु वा समयका अथ पनवान है। तब क्षप्रिय नामक सिौ लिया है.-'धाग्नो धाम्नों रामस्ततो पण नो मुंश्च ।। तत्र वय की साथी या नहीं सन्देह है । बम मधि यवारया इति यरुणेति पान ततो ययण मुश पति हैं, इस कारण परवर्ती मा मप्पयुगमें दानिय (पलशाली) फिर शुभयच १३. मग्नम लिया है-"पृहस्पतिर्वाच राजाओं क वर्ण निर्णयक साथ साथ परणको 'भी क्षत्रियके मिन्द्रो ज्येष्ठाय रहा पशभ्य मित्र सत्यो घणो धमपता राजाओं के मधिपति पददाता भौर रक्षाकतो कहा है। ऋक्, नाम्।' यहा मलाशमें वरुणेशे धर्मपति कहा है। उसके संहिताके १६५२ मन्त्रमें- भाध्यम महाधरन अच्छी तरह सॅनिभा दिया है, धर्म | नाराजानामह तस्य गोपा सि उपती क्षत्रिया यातमर्वाक !" पतीना धर्मेश्वराणा धर्मगोलानामधिपन्या सुरता। मन्त्रका वयफ विधुपति मौर क्षत्रिय कहा है। किन्तु सवित्रादयोऽया सुपरि देवतस्त्या नानाधिपत्यानि | इसका अप दूसरा है। " ददयिति वाफ्यार्थ ।' उसके परपती मन्द (४०)! ' 'भय देवानाममुरा वि रानति वशा हि सत्या वरयस्प राशः। घरुणादि देर द्वारा राजमोकामहतो सवपदों पर नियो। ततसेरिब्रमण्या शासदान उग्रस्प मन्यापदिय नयामि ॥" की प्राथना दखो जाता है। तैत्तिराय ग्राह्मणक ३।१२ (धर्म१९०१) Vol 1 157