पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष विंशति भाग.djvu/६४१

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चर्शिका-वमोग वर्शिका (सं० स्त्री० ) वर्तनि वत्तते इत्यच, वर्श म्बार्थे यत्त लो (स० रो०) वत्त ल गौरानित्यान इं.। गह. का-टा। १ वर्तनी, बटेर । २जयगी। वर्चि ग्वार्थे , पिला। अन् टाप् । ३ घर्शि, वत्ती । कालिकापुराणमें लिखा वन ( स० पु. ) : मार्ग, पय ! २ गाडीके पहियेगा है, कि चर्ति पाच प्रकारकी होती है,पद्ममृतमय, मार्ग, लोक । ३ नेबछट, आंवका पलक । ४ आधार । दर्भगर्भस्वभव, भालज, वादगे ओर फलकोपोद्भव । इन। ५किनारा, औद, वारी। पांचा प्रकारके सूनेने दीयेकी बत्ती बनाना होती है और वमक (सं० वि०) वर्मयुन । नेत्रनमयुक्त। इसमें पूनाके ममय देवताओंके मारती उतारने की विधि वत्संगद्दम म० पु० ) नत्रयमगत गंगविनर, आंत्रका है। (कालिकापुराण ७८ ५०) ४ पिष्ठकविशेष, पीठा। एक रोग। इसमें पित्त और रन प्रकोपसे आनमि ५शलाका मलाई। कीचड भरा रहना है। वर्तिकाविन्दु (स पु०) हारेका एक टोप। इस प्रकार वनकर्मन् । मो०) पथ या राम्ना वनानका काम ! हारको धारण करनेसे भय उत्पन्न होता है। (Enginering) वत्तिन ( स० त्रि०) वृणिच्-क्त । १ सम्पादिन, निष्पा-वांद (म० पु०) यथदको एक गानाको नाम । दिन, किया हुआ। २ रुनसम्पन्न, दुरुस्त किया हुआ। वर्मन् (सला०) वतिऽनेनारिमन् वेति बन-मनिन् । चलाया हुआ, जारी किया हुआ। वम पार वर्तितव्य (स लि०) वृन-तव्य । वर्तनयोग्य, रितिक बत्मनि ( म खो०) वर्तते इति च (गनेन । उगा लायक। १०७ ) इति अनि चकारात् मुडागमोऽप्यवेति बेचिन् । वर्त्तिन (सं. नि०) जून इन् । १ वर्तनशील, वरनने , पन्या, राह।। योग्य । २ स्थित रहनेवाला । वर्गन्ध (सं० पु०) नेतपन्नगत गेग, आंग्त्रका एक वर्तिर (सं० पु०) वटेर। राग 1 इमो पलकमें सूजन हो जाती है, खुजली तथा वर्तिणु (सं० त्रि०) वर्तते इति घृत (थलकृमनिरा । पीडा होती है और यांव नही खुलती। कृतप्रजनात्प्रचोत्पतन्मदरच्यपत्रपधुसहचर हाच । पावत्ममाक्षिक (म० पु० ) स्वर्णमाक्षि, सोनामाग्यो। २२११३६ ) इति इणुच् । वर्तनशील, वरतनेयोग्य । वर्मगेग (सं० पु०) वतांनो रोगः । नवपश्मगतगेन, आँत पयाय-वर्गन, वत्तों। का पक रोग। इसमें पल कॉम विकार उत्पन्न हो जाता त्तिप्यमाण (स.नि.) वृत भविष्यति स्थमानप्रत्ययः ।। है और आपको मोलनेसे बड़ी पडा होना है। इस रोग मविध्यनकाल दि, वर्तमान प्रागभावाध्य । मे २१ भेद माने गये है। यथा-उत्मशाना, कुम्मा , पर्तिस् (सं० लो० ) गृह, घर। "त्रिवर्गियातं चिरनु | पोका, वर्गवारा, वत्मार्ग, शुसाशं, अशन्द पास, व्रते (मृत ११३४१४) 'वर्तिस वर्ततेऽत्रेति वर्तिगृह' बहुलवर्ग, वर्गवन्धक, फिनयम बनाई म. गाव , (सायण्ण) प्रतिन्नबत्म, अछिन्नदा, वातहतम, वायुद, वती (२० स्त्री० ) वर्ति-ऋटिकारादिनि ओम् । १ वर्ति, निमेप, शोणितोशं, नगण, विपवन और कुञ्चन । घन् । २ शलाका, सलाई । (त्रि०) ३ वर्तिन देखो। इसके लक्षण-त्रिदोषका प्रकोप होनेने वर्ताका वतार (सं० पु०) वटेर। मध्यस्थल कण्डयुक्त, बाहर रक्तवर्ण तथा बम्प्रन्तर मुग्न वर्तुल (सं० त्रि०) वर्तते इति वृत बाहुलझादुलन। विशिष्ट पोडका उत्पन्न होनेसे उसे उत्सङ्गिनी कहते हैं। १ वृत्ताकार, गोल । पर्याय-निस्तल, वृत्त, मण्डलायित ।। जिस नेत्ररोगमे पठकोंके भीतर अनारको तरह पोडका २सम्पूर्ण गर्भवत्त । (क्लो०) ३ गृजन, गाजर । ४ मटर 11 उत्पन्न होती है और उसमे मवाद निकलता है तथा पुनः ५ गुण्डतृण । ६ टक्षण, सुहागा । ७ मणिभेद। फल उठता है, उसीका नाम फुम्भिका है। वत्त ला (स० स्त्रो०) बत्तुल-टाए । तर्कुपाटो, टेकुआ फण्ड गैर नावयुक, गुरु और वेदनाविशिष्ट लाल