पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष विंशति भाग.djvu/६६१

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वर्गवत्-चार उक्त मुक्तके 'मर्माणि ते वर्मणा छादयामि' १८ मन्त्रसे । वर्मित (स० वि०) वर्म करोनीनि वर्म णिच, ततः कर्मणि न गफ मालम होता है, कि आर्यगण वर्म द्वारा मर्मस्थानों.. वर्म सञ्जातमम्येनि इतच् वा । वर्मगुना, कवचधारी । को आच्छादन करना जानते थे। इसके अलावा अमृग्वेदक पर्याय नमनाह, सन्नद्ध, मन, दणित, व्यूट फकट, ८४७८, १०।१०७१७ तया अपर्यवेदके ८५७ और २६ ऊढकट । मन्त्रमें वर्गो कार्याकारिता लिसा है । गमायणके वर्मिन ( स० पु० ) १ नादेय मत्स्यविशेष. एक प्रकारको ३१३० अध्याय तथा महाभारतके आदि, वन, विगट । मठली। (त्रि०)२ वम युन, करधागे। और उद्योगप में वर्म पहनने की विधि लिनी है। इनके वर्मु प ( ग० पु०) मत्स्यविशेष, एक प्रकारको मउठी। अतिरिक्त श्रीमद्भागवन, वृहत्महिता आदि ग्रन्थों में भी इसका गुण बाननाशक, स्निग्य और प्रदायनाशक माना धर्म प्रचार और प्रभावका परिचय मिलता है। किन्तु गया है। (राजवलतभ) दृश्यमा विषय है कि उस समय किस तरह वर्म निर्माण चा (रा० त्रि०) वने प्रार्थने इति वा ईनाया करके भारतीय आ योड वर्ग युद्धके समय अपना ' ( अचा यत् । पा ३१६७ ) उनि यन् । प्रधान । २ अपना शरीर आच्छादन करते थे. उसका कोई निर्णन श्रेष्ट। इसका प्रयोग विशेषतः मारत पदोंम होना है। नहीं पाया जाता। जैनेविदा । (पु.३ कामदेव । प्राचीन असुरियों के उत्कीर्ण शिलाखण्डके या चित्रवर्या (10न्त्री० ) नियते इति पृ ( अवय रयत्पर्य्यति । पा में मयत घोडामोशी प्रतिकृति गोई हुई है। मारतके/ ३६१३१०१ ) इति अप्रतिवन्ये यत् । १ पतिबा यधू। . नाना म्यानों के पनिरीम ऐमो वहुत सी व परिवृत। पन्या । ३ आढपी, अरहर । मूर्तियाँ विद्यमान है। अरवियोंका विश्वास है कि धर्मः । वय्यांजन (० को०) रमाक्षन । प्रचारक दाउदने नवसे पहले वकतर (Coat of maul) तैयार, वर्धट (गं० पु०) म्वनामल्यात कलायभेद, लोबिया । और प्रचार किया था । प्राचीन रोमक योड,गण वक्तर- अगरेजी मे इसे Dolhchos catjar महते है। ले समृचा शरीर ढक कर युद्ध करते थे। उमफे वोट वाणा ( मं० स्त्री० ) अरित्ययकादेन वणति गदायक क्रममे अपरापर जनपदवासियों में बस्तर पहननेको इति वण मन्दे अत्र टा। नीलमक्षिा , नौली ग्यो। व्यवस्था जारी दुई । पोछे जब कमान, बन्दुम आदि आग्नेय वर्चर (म० की० ) तृणुने वरयति नानागुणानिनि ट(३ अन्त्रों का प्रचार हो गया, तब इसका व्यवहार क्रमा वमता ग, वचिभ्यः प्यरच । उण २०१२३) इति बग्न । गया। १ हिट.गुल, ईगुर। २ पोनचन्दन, पोला चन्दन। ३ २गृ, घर । ३ पर्यटक, पित्तपापड़ा। । वोल। वणोति टोपानिति यूपरच । (पु०) ४ पामर, वर्मवत ( ० लि०) वर्म विद्यनेऽन्य मतुप पस्यः । वर्म नीच । ५ धुंघराले बाल । ६ एक देशका नाम । ७ युक्त, जो वकतर पहने हो। पञ्जिका । ८पाली बनतुल्सी। पर्याय-सुमुन, गर. चमहर (सं० नि०) हरतीति ह अब हरः, नर्मणो हरः। न, कृष्णवर्धक, सुकन्दज, गधपत्र, पूनगन्ध, सुबाहक । वहारक, कवचधारी। इमा गुण-टु, उण, सुगन्ध, यमन, विमा, विष वर्मा (सं० पु० ) अत्रियां आदिकी उपाधि जो उनके नाम और त्वग्दोषनाशक । ( राजनि० । अ तमे लगाई जाती है। | धर-पक म्लेच्छ जानि। इस जातिको वासभूमि अर्मि (सं० पु० ) मत्स्यविशेप, एक प्रकारकी मछली प्राचीन ग्रन्यादिचे अनुसार बर्बर जत्रपट थी। किन्तु इसका गुण-गुरु, बलकारक, पपाय और रक्तपिक यथार्शमें वह स्थान कहां था, इसका ठीक टोक पता आज नागक। भावप्रकाशके मनसे यह मछठी लघुपाक एवं तक भी नहीं लगा है। महाभारत-भीष्मपर्वा ६५६ घायु और पित्तनागक मानी गई है। अध्यायोरे, बामन १३३मे, 'मार्ग० ५७.३८ मत्स्य. अर्मिर (ति०) चर्मपरिवृत, कवचधारी। १२०४० अध्यायमें वार जातिका उल्लेय देना ज्ञान