वर्यप्रवेश-वर्या
प्रवेश लग्न होनेसे चन्द्र, मिथुन होनेमे चन्द्र, प्रकट होने ' है, मिर्फ वर्पकुण्डली देन कर फल निणय करने वह
से मदगल, सिह हानेसे रबि, स्न्या हनिमे शुक्र, तुला होने नहीं मिलेगा, जन्मकुण्डलीके साथ सम्बन्ध विचार
सं शनि पत्र व श्चिम होने में शुक्र निर्माणपनि हाता है। करके फल निरूपण करना होगा। (नीलकगठवाजिक )
दिन या रातमे वर्षप्रवेश होनेमे धनुका शनि, मकरका वर्षप्रावन (सं० वि० ) अत्यधिक वटिपान, बहुत जोर
मदनल, कुम्मका वहस्पति और मीनका चन्द्र विगगिपति , पानी बरसना ।
होता है।
'वर्षप्रिय (सं० पु० ) वयाँ वर्गणं प्रियं यस्य । चातक पक्षी।
जन्मलग्नका अधिपति, वर्णप्रवेशलग्नका अधिपति, वर्णफल । सं० ली. ) फलितज्योनियमें जानकके अनुसार
मुन्याधिपान और विरामिति, दिनमें वर्गप्रवेश होनेसे । वा कुण्डली जिमग्ने किमोके वर्ग भरके ग्रहों के शुभाशुम
मुर्गभाग्यमै राशिका अधिपति और राति वर्गप्रवेश, फलोंका विवरण जाना जाता है। वर्ष और सम्बन्सर देखा।
होनसे चन्द्रमाग्यमे गणिका अधिपति. इन पात्र ग्रहों द्वारा वर्गभुज (म० पु०) बण्डमण्डलपति, पृयक पृथक जनपद-
वधिनिका विचार करना होगा।
फा अधिपति। ( भागवत १०८०१२८)
इन पांच ग्रहोम पञ्चवर्गी बल द्वारा बलवान हो कर . वर्गमर्यादागिरि (मं० पु०) वर्ग महका सीमापर्वत ।
जो प्रह लाग्नका देवता है, वही ग्रह बांधिपति होता
(भागवत ५।२०:२६)
है। जो प्रह लग्ना नहीं देवता है वह ग्रह बर्याधि- । वर्षमात्र (R० अध्य० ) पक वत्सर।
पति नहीं होता। उक्त पाच ग्रहों के समान वली होनेसे । वर्षमेदम् (सं० पु० ) वृष्टिमार । ( थया २१९४२)
जिम प्रहका दृष्टि अधिक होती है, वही ग्रह बर्याधिपति वर्षवर ( स० पु०) वरतीति वर यावरणे अच, वर्षम्य
होता है। उक्त पाच ग्रह होनवल हो कर यदि समान रेतो वर्षणग्य वर आघरकः। वण्ड, नोजा।
दष्टि करे, तो मुन्याधिपति प्रह वर्षाधिपति होना है और वर्पचईन (मक्को०) वयसको वृद्धि ।
दत्त पांच ग्रह यदि लम्नको दृष्टि न करे, ना चलाधिक ग्रह | वर्षबुद्ध ( स० वि० ) वयोवृद्ध, जो उम्र में बडा हो।
वर्षपनि होता है। इसमें किसी फिमीका कहना है कि वर्षद्धि ( स० स्त्री० ) वर्षस्य वृद्धिराधिक्यं यत्र।
बल और दृष्टिकी समानता और अभाव हानले दिनमें | १ जन्मतिथि: विवेश विवरण जन्मतिथि गब्दमें देग्यो ।
सूर्य भोग्य राशि राशिपति और गत्रिम चन्द्रमोग्य राशि- २ वयोवृद्धि।
पति वर्गधिप होता है।
वर्षशत (संसो०) शताब्द ।
वांप्रचामे मोलह प्रकारके योग निर्दिष्ट हुए है। वर्षशताधिक (सं० वि०) शताब्दसे मी अधिक।
इन सब योगाके द्वारा शुभाशुभ स्थिर किया जाता है। वर्षमहन्त्र (म त्रि०) सहन्न वत्सर ।
योगोंके नाम यथा-इरालयोग, इन्दुगगयोग इन्यशाल-वर्षा (सपु.) वर्षस्य चत्मरस्य अंजः। माम,
योग, शराफयोग, नयोग, यमयायोग, मनुस्योग, / महीना।
सम्वृलयोग, गौरिक्धुलयोग, स्वल्लासयोग, रहयोग, वां शक ( स० पु० ) वर्षा देखा।
दुकालिकृस्थयोग दुत्योत्यवीरयोग, नन्वीरयोग, कुन्य- वर्षा (सं० स्त्री०) चयों वर्गण-मस्त्याशु इति वर्ग अर्ग-
योग, मतान्तरसे दुरफयोग।
आदित्यादच, टाप, यद्वा वियन्त इति (वृतीति । उप
इन सब योगोंका विशेष विवरण नीलकण्ठक्ति श६२) इति सः, ततष्टाप् । १ ऋतु । पर्याय-प्रावृट,
ताजिश्मे वर्णित है। यह सब योग निर्णय कर महम घनकाल, जलार्णच, प्रवृट, मेघागम, धनागम, घनाकर ।
स्थिर करना होता है। सहम भी ५० प्रकारका होता (शब्दरना०) मौर श्रावण तथा सौर भाद्र इन दोनों महीनेको
है। पीछे वर्गप्रवेशकी दशा निरूपण कर फलाफल स्थिर वर्णकाल कहने हैं। "नभाश्च नमस्यश्च वपिकावृतुः"
घग्ना होता है। वांप्रत्रेशमें वर्गकुण्डली और जन्म. (मलमासतत्त्वधुत श्रृति ) यह वर्षाकाल दक्षिणायन है,
__ कुण्डली उन दोनों को देख कर फल स्थिर करना जरूरी यह देवताओंकी रात्रि है।
पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष विंशति भाग.djvu/६७३
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