पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष विंशति भाग.djvu/६७४

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वर्षा थापाढादि मास चतुष्टयात्मक कालको भो घपा कहते घपाकालमें कालधर्मयश मनु"यक पेटकी पाचनशति हैं। आपाद, धावण, माद तथा आश्विन मास। चातु कम हो जाती है। इससे शरीर खिन हो जाता है। उस मास्य विधानस्थलमं आपाढ माससे लेकर इस व्रतका | समय आकाश जलभारारनत तथा जलदजालस व्याप्त विधान है पर पे चारों मास वपा हा कहलाते हैं। । होनके कारण सहमाशोतल तुपारसित पवन, भूतलो भावप्रकाशमें लिखा है कि, पर्यामृतु शोतल विदाइ । स्थित याप्प तथा अम्ल विपाकनारिम एघ अग्नि मन्द पाजन मन्दाग्निकारक एप यायुपर्द्धक होता है । घपा | होनेके कारण वात, पित्त तथा कफ प्रवल हो उठते हैं। काल में पित्तको उत्पत्ति होती है, यायु प्रबल होतो है, वात, पित्त तथा कफ परस्पर एक दुसरेको दपित करता अतएव इस वायुको शान्त करनेके लिये मधुर माल । है, जिसम पाचनशक्ति नष्ट हो जाती है। इस ममय तथा ल्यण रसयुक्त पदार्थ विशेषरुपमें सेवन करना | साधारणतः पाचनशति बढानेवाली वस्तुओंका चाहिये। इस समय शरीर क्लिन हो जाता है, इस व्यवहार करना चाहिये । इस समय शरोर शोधन करके किमताके निवारणार्य का मा, तोता तथा पायरसका। स्नेहमिन, पुरातनधाग्य, सुसस्त मामरम, जगली सयन करना चाहिये । वर्षाकाल में स्वेदकर दृव्य मेवन | पशुभोंके मास मुगादिके जूम, पुराना 'मधु तथा अरिष्ट, तथा मगमईन करना चाहिये। इस ऋतु में दधि, उपण | सौरर्चरयुक्त मस्तु वा पचकोलचूर्ण एव आकाश जल, द्रव्य, जङ्गली पशुओंके माम, गोधूम, गालितण्डुटके मन पजल वा अग्निसिद्ध जल सेवन करनेस बहुत लाम मापराय, का जल तथा चूतफल सेवनीय हैं। पहुचता है। अत्यन्त बदली के दिन तीक्ष्ण अम्ल, एपण पूर्वोय यायु, पटि, धूम, दिम, परिश्रम नदी किनारे तथा स्नह सेवा, शुगक तथा हलका भोजन एय मधुपान भ्रमण, दिनम सोना, रक्षाध्य तथा नित्य मैथुन पे सब करना चाहिये। पर्जनीय है। वर्षाकालमें पैदल चलना निषेध है। इस समय सुगध धुन, मधुर, पाय तथा तिक्त रमयुक्त दप, लघुपाक सेवन तथा धूपित यसन धारण पर वाप्पशीत शोकर दृष्य दुग्ध स्वच्छ तथा शुक्रवर्ण पुरिफार, लयण थोडा जङ्गली पशुश माम गोधूम, जर, मूग गालितण्डुल वर्जित हर्यपृष्ठ पर वास करना अच्छा है। नदीजल, पूर, रक्तचन्दन, रात्रिके प्रथम भाग चन्द्रको ज्योन्मना, उदमाय (घृत प्रक्षेप क्यिा हुआ अलसित आँटा द्वारा माल्यधारण निर्माबधारण सुहृद्पुरषोंक माथ मधुर जा याद्य वस्तु तैयार होती है उस उदमय कहते है ) वार्तालाप सरोवरमें जलकाहा पव घ्यायामराहित्य | दिनानिद्रा, परिश्रम तथा आतप सेवन वर्जनोय है। वर्षाके असान समय हिनकर हैं। दधि व्यायाम, आल (यामर सप्रस्था० ३ म०) तथा टु वन्य पुग्णद्रष्य, नीक्ष्ण द्रभ, दिनको निद्रा हिम वर्षाकाल में इन सब वैद्यकोच विधियोंक अनुकरण एघ धूप ये सव वपाके अवसान समय वर्जनीय है। परनेस क्सिो तरहका ध्याधिका प्रकोप नहीं होता, स्वास्थ्य (भावन ) अच्छा रहता है। नाभ में गिरावा है कि पर्या शरत् तथा हेमन्तकार| सुश्रुतमें लिखा है कि, इस समय रात्रिदिवसके मध्य दक्षिणायन है, यह दिन दिन ठोगेका वठविमनन अर्थात् मो सवत्सरशी तरह शीत, प्रीष्म तथा पोदिके ममान वरदान करता है, इसलिये इसे यिसननकाल कहते हैं।। छ ऋतुओंके लाण देखे जाते हैं एवं सध्या समय या इस समय चद पलनान तथा सूर्य हीनवल होते हैं। मनुके लक्षण भी स्पष्टरूपमें पाये जाते हैं। इसलिये और “ीतल मेघ पृष्टि तथा घायुयोगसे पृथ्वीक मन्दर चपाकालको निषिद्ध पस्तुएँ सध्या समय नहीं मानो की गो शान्त होतो है। इसलिपे समी द्रव्य स्नेह चाहिये। युक्त होत हैं। अम्ल ल्यण तथा मधुर रस प्रपल होत हैं। वर्षामं अम्ल, शरदमें लवण एघ हेम तमें मधुर रस | कविकल्परता लिम्बा है कि, वर्षावर्णन करनेके प्रवर होते हैं। | समय शिलो स्मय इसागम, पा, कन्दल, उन्नेद, Vol xI 173