पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष विंशति भाग.djvu/७२३

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५४८ वसन्तरोग मलयानिल संचालित भारतमें इस रोगकी प्रबलता | समान वनानेके लिये कई वैज्ञानिको ने नारियलका तेल बहुत दिनोंसे सुनी जाती है। 'अथर्ववेदके (श२५।१) शरीरमें मलनेका परामर्श दिया है। "तकमन्" शब्दमें शीतला रोगका उल्लेख है। दाक्षिणात्य शीतलाके पंडित लोग पहले रोगोके उष्ण रक्तका प्रभृति नाना स्थानों में आज भी लोग इस रोगको वसन्त ताप निवारण एवं गात्रज्वाला शीतल करनेके लिये न कह कर शीतला ही कहते हैं। पिच्छिलातन्त्रमे वैद्यक शास्त्रके मसूरिकाध्यायोक्त एवं पाचक तथा मकर- शीतलादेवी विस्फोटककी उग्रतापनाशिनी एवं स्कन्द ध्वजादि ओपधियोंकी व्यवस्था करते हैं एवं साथ ही पुराणमें वे विस्फोटक-विशीर्णकी अमृतवर्पिणी तथा गल | साथ शीतला माताके स्तवादि पाठ करके रोगोके चित्तम गण्डादि दारुण प्रहरोगविनाशिनी कही गई हैं। इस शीतला माताका प्रभाव फैला देते हैं। कारण व्रणज क्षत वसन्तरोगकी वे ही अधिष्ठात्री हैं। जब शरीरमें वसंत अच्छी तरह नही निकलता, तब हिन्दु मतानुसार एक्रमात शीतलादेवीके पुजारी वे पंडित लोग अपनी अभ्यस्त ओषधियाँ प्रयोग करके ब्राह्मण चा डोम पंडितगण ही वसन्तरोगकी पूजा करनेके | वसंतफा वहिर्गत करनेकी चेष्टा करते हैं। इस तरहसे अधिकारी है। वे लोग जिस प्रणालीसे चिकित्सा जव वसंतकी गोटियाँ शरीरके सभी स्थानोंमें पूर्णरूपसे करते हैं, वह संक्षेपमे नीचे लिखा जाता है। निकल पर क्रमशः परिपक हो जाती हैं, तब वे रोगीका रोगीके शरीरमें वसन्त दिखाई देने पर उसी क्षण देहमें चन्दन, काम्ची हलदीशा रस तथा मखनके संयोगसे उसे स्वतंत्र गृहमें पवित्रतापूर्वक रखना चाहिये । रातके एक प्रकारका मलहम तैयार करके लगाते हैं । इससे रोगी- पहने हुए कपडे विना वदले एवं किसी प्रकारके अशुचि का शरीर शीतल होता है। इसके बाद कांटा देनेकी वस्त्र धारण किये रोगोके घरमे प्रवेश न करना चाहिये ।। प्यवस्था होती है। इस रोज वे बेलके कोटेने व्रणको दिनमें तीन वा चार बार घरमें गङ्गाजल छिडकना चाहिये | धीरे धीरे फोड देते हैं। फाटा देनेके पहले दिनको एवं धूना जलाना चाहिये। घरका कोई व्यक्ति मछली न रात्रिको वे रोगीके गृहमें पञ्चपालोंके मध्य गंगाजल, खाय एवं लाल कपड़ा न पहने, ये दोनों निपध माने | रूई, शुद्धदुग्ध तथा ५ वेलके काटे रख कर कहते हैं- गये हैं। कारण यह है, कि इस समय गृहमें मां शीतला | "मां आ कर काटा देगी, इसके बाट आवश्यकतानुसार प्रवेश करती हैं। इस समय लोग गृहमें घट स्थापन | मैं दुगा । आवश्यकता न होने पर में कांटा न दूंगा।" करके मांकी पूजा करते हैं। मां श्वेताङ्गी कह कर बेलके काटेसे वसन्तका मुख्न उमझा देना बहुत जरूरी यर्णित हुई है, किन्तु लोग मांझी लाल रगकी मूर्ति तैयार है। इससे मवादके निकल जानेकी विशेष सुविधा मरते हैं। रोगी इस समय एकाग्र चित्तसे माकी मूर्ति होती है। इसके बाद शरीर को ज्वाला निवारणके लिये का ध्यान करते हैं। लाल रंगके कपड़े इत्यादि पह । चे रोगीके समूचे गरीरमें मक्खनका प्रलेप करते हैं। नना श्वेताङ्गी देवीफा अपमानकर समझ कर ही सम्भ कभी कभी वसन्तरोगका घाव आराम करनेके लिये पतः इस तरहकी निषेधाज्ञा प्रचारित हुई है। वर्तमान | चे वसन्तकुमारो प्रभृति नाना प्रकारका तेल तैयार करके किसा चमानिकने स्थिर किया है, कि वसन्तरोगग्रस्त रोगीकी देहप्ने क्षत अथवा आक्रान्त स्थान पर लगा देते व्यक्तिको लालवर्णहीन गृहमें रखनेसे लाभ होता है। हैं। इससे बहुत लाभ होता है। क्योंकि लालरङ्गक साथ वसन्तको अधिक सहयोगिता मा शीतलाको दमासे वसन्तकी उम्र ज्वाला कम जाने है। इसीलिये बोध होता है, कि हमलोगोंके ज्ञानी | पर हिन्दूलोग माँ शीतलाका गाना गाते हैं एवं देवीके मनुष्याने शीतला देवीको लालमूर्तिकी कल्पना की थी। सामने पूजा तथा वकरेका बलिदान करते हैं। इस देशीको मूर्तिक ध्यानसे रोगमुक्तिरूप लौकिक तथा शीतलाकी पूजाके लिये स्थान स्थान पर ब्राह्मण-पुजारी मोक्षरूप पारलौकिक मूर्ति विनिविष्ट है। रोग आराम | एवं कही कहीं डोम पंडित नियुक्त हैं। ये लोग ही वसन्त हो जानेके वाद वसन्ता दागको शरीरके चमडे के। रोगकी चिकित्सा परते हैं। इनकी चिकित्सा-प्रणाली