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वसिष्ठ
शपथ खाई थी। शपथ क्यों खाई थी मनुटीफार्म कुल्लूक- वृहदेवता (४।२२) में लिखा कि परयों विश्वा.
ने इस प्रकार लिखा है,-
मित्रप्रोक्त चार ऋक हैं, वसिष्ठगण उन चारों मन्त्रों को
विश्वामिलने जय वसिष्ठके सौ पुलोंको खा साला, न सुनेगे, यही उन लोगोंके आचार्यका मत है।
तब उन्होंने कद्ध हो अपनी परिशुद्धिके लिये पिजवनके इस प्रकार विश्वामित्र और वसिष्ठके मध्य परस्पर
पुत सुदामन राजाके निकट शपथ की थी।
विद्वपका आभास रहने पर भी वसिष्ठका ऐश्वर्य देख कर
____ यहा कुल्लूफने विश्वामिनको राक्षस पतलाया है और विश्वामित्रकी इर्षा तथा उससे उनके ब्राह्मणत्व-लाभकी
सुदामन राजाका नाम लिया है, किन्तु वेदमें ऐसी वात | वात भी वेदसं हेतामें नहीं मिलतो। रामायण, महा-
नहीं है। विश्वामिलने सौ पुत्र भक्षण नहीं किये थे, भारत और पुराणादिमें इसका विस्तृत विवरण देखने में
एक राक्षसने उन्हें भक्षण कर अपनेको वसिष्ठ यतलांनेकी आता है। विश्वामित शब्दमे विस्तृत विवरण देखो।
चेष्टा की थी। ७।१०४।१२ ऋक के भाष्यमें सायणा विष्णुपुराणमे लिखा है, कि दक्षकी कन्या ऊर्जाके
चार्यने वृहद्दे वताका मत उद्धत फर दिखलाया है, पहले गर्भसे रजः, गाल, ऊर्ध्ववाहु, सवन, अनय, सुतपा और
वह बात कही जा चुकी है। फिर पिजवनके पुत्र का नाम शुक्र ये सात सप्तर्पि उत्पन्न हुए । भागवतपुराणके मतसे
सुदामन नहीं, सुदास था।
वसिष्ठकी दूसरी स्त्रीके गर्भ से शपतृ नामक एक पुत्रने
शाट्टायन ब्राह्मणमें लिखा है, कि (वसिष्ठके पुत्र) शक्ति जन्मग्रहण किया। मनुस हितामें वसिष्ठकी अक्षमाला
ने सौदास कर्तृक अग्निमें निक्षिप्त होनेके समय प्रगाथ- नाम्नी एक और पत्नीका उल्लेख मिलता है। अक्षमाला
फा शेषाश पाया था। अर्ध्व ऋक् योलनेके अन्तिम निम्न कुलझी होने पर भो भफेि गुणसे उन्नत हो
समयमें वे दन्ध हुए तथा वसिष्ठने पुलोक्त क को गई थी।
सम्पूर्ण उच्चारण किया था। इस प्रकार वसिष्टने अपनी "याहग गुणेन भर्ना स्त्री स युज्यते यथायिधि ।
शपथकी रक्षा की थी।
ताहग गुणा सा भवति समुद्रणेव निम्नगा।
मुद्रणव निम्नगा।
__काठकमें लिखा है, कि ऋषिगण इन्द्रको प्रत्यक्ष देख अक्षमाला वसिष्ठेन संयुक्ताऽधमयोनिजा॥"
न सके। एकमात्र वसिष्ठने ही उन्हें देखा था। पीछे
(मनु हा२२-२३)
वसिष्ठ कही ऋपिके सामने उन (इन्द्र) का विषय वर्णन महाभारतमें वसिष्ठकी प्रधान पताका नाम अरु-
न करें, इस भयसे उन्होंने वसिष्ठके निकट आ कर | न्धती कहा है। रामायणमे लिखा है, कि वसिष्ठके
एकान्तमें कहा, 'मैं तुमको ब्राह्मण स्वीकार करता हूँ, तुम | हुङ्कारसे विश्वामिलके सौ पुत दग्ध हुए थे। रामायण
मेरा विषय इन ऋषियोंके सामने न कहना। पीछे जो | और महाभारतसे मालूम होता है, कि इक्ष्वाकु-पुत निमिसे
जन्म ले गे, वे ही तुम्हें पौरोहित्यमे वरण करेंगे। यही | सूर्यवशीय राजाओंके वंशपरम्परा पुरोहित वसिष्ठ
कारण है, फि इन्द्रने वसिष्ठको स्तोमभाग कह दिया था। थे। विष्णु और ब्रह्माण्डपुराणक मतसे टम द्वापरमें
पड विश-ब्राह्मण (१।३६)-में लिखा है, कि इन्द्रने वसिष्ठ व्यासरूपमै अवतीर्ण हुए थे। उसी पुराणमें एक
विश्वामित्रको उक थ और वसिष्ठको ब्रह्म कहा है। उकथ जगह लिखा है, कि वसिष्ठ आपाढ़ मासमे सूर्य के रथ पर
ही वाक है वही विश्वामित्र हैं तथा ब्रह्म हो मन है, वही रहते थे।
वसिष्ट हैं। यही कारण है, कि यह मनन ही वसिष्ठका
तन्त्रमें वसिष्ठ
निजस्व है।
महाचीनाचारका तन्त्रमें इस प्रकार लिखा है-
पुराणमे वसिष्ठ।
पूर्वकालमें ब्रह्माके मानस पुत्र स्थिरसंयमी वसिष्ठ
- घेदमे विश्वामित्र और वसिष्ठका प्रसङ्ग रहने पर भी मुनिने नीलाचल पर तारादेवीकी आराधना की थी।
कहीं भी बसिष्टके आश्रममें राजा विश्वामित्रके जाने और । अयुत वर्ष आराधना करने पर भो तारा देवी प्रसन्न न
दोनों के विवादका स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता। | हुई। अनन्तर मुनिवर अत्यन्त ऋद्ध हो ब्रह्माके निकट
पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष विंशति भाग.djvu/७३१
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