पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष विंशति भाग.djvu/७३२

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वसिष्ठ १७ गपे गौर उनसे कहा 'मैंने नीलपर्वत पर इयिष्याची तथा | मपरलोचन बुद्धदेवको देवते ही घे विस्मित हो गये। सयमी ही देवी तारिणीको भाराधना की। परतु जब पहोंने मन ही मन ससारतारिणी ताराको स्मरण कर रूपा मुझ पर नहुा, तब सिफ पर गण्डप जल पी कर कहा, शि घुद्धरूपी विष्णुने पद कौन सा आचार अयुत घर्ष तक फिरसे देवाको कठोर आराधना की। अवलम्बन क्यिा? यह तो देव और देवाचारविक्र है। वितु जब देवा कि इतने पर भी देवी प्रसान न हुई तव | इसी समय देवयाणी हुर, 'हे मुने ! तारिणा परमार्थिन मैंन नीग्पर्यत पर एक पदमे दण्डायमान हो परम | यह आचार है इसके विरुद्धाचारसे घे प्रसन्न नहीं समाधि भयलम्यन र निराहार रह देवीके ध्यानमें | होती, मतपय यदि तुम उनका अनुप्रइ चाहते हो, नो हजार यप बिताया। इतना ही नहीं, उसी प्रकार कठोर सो माचारसे उनका मजा करो।" यह भावमें दश हजार वप कामाण्याम भी विताया, जितु आकाशवाणी मुन कर मुनियर वशिष्ठ दण्डवत् भूमि माज तक कोई अनुप्रद मुझे देखने में नहीं आता। अतपर पर गिर पढे पाछे उठ कर एतालिपुटमे दुमाध्या इस विधाको मैं वडे दुपके साप त्याग करता | धुद्ररूपी विष्णुके निकट गपे। मदमत्त प्रसन्नात्मा युद्ध है । ग्रहाने पशिष्ठको सात्वना देते हुए कहा, 'वशिष्ठ ने उहं देन कर पूछा, 'तुम किम लिय या आपे हो?' तुम फिरसे नालाचल पर जाओ, यहा रहकर कामाया | मुनिने मविपूर्वक प्रणाम पर मारिणीशी आदेशवाणी योनिर्म उस परमेश्वरीको आराधना करो। मति शोघ्र । कह सुनाई। भगवान बुद्धने कहा, 'मुनियर ! यद्यपि तुम्हारा मनोरथ सिद्ध हो जायगा।' मुनियर वशिष्ठन | यह माचार मप्राश्य है, तथापि मैं तुम्हे जो कहता हू. पिताफ वचन मा पर हजार वर्ष तक ताराकी माराधना, सुनो,-तारादेयीका भाचारानुष्ठान करनेसे ससारम को, परतु लो पर भी महेश्वरो ताराको उन पर कृपा न फिर आना नहीं पड़ता। इस आचारसे स्नानादि समो दुइ । अनन्तर मुनियरने क्रुद्ध हो कर देवीको धाप देनेके | मानसिक तथा समा काल शुभ है अशुम काल कोई भी लिये जल प्रहण किया। घशिष्ठको मोघ देख कर यन | महो। इस आचारमें शुद्धि मादिका अपेक्षा तथा कानन पर्वतादिक माय सारी पृथ्वी कापने लगो, समस्त मद्यादिका दोष नहा है। सर्यदा पया स्नात या दव भौर देवियोंके मध्य हाहाकारको ध्यानि होने लगी। मस्नात, या मुक्त पया अभुक्त सी समय देवीको पूमा सप ससारतारिणो सारादेवी घशिष्ठ मुनिके पुरोमागमें | र सकते हा इत्यादि प्रकारसे बने मदाचानाचार मापित हु। मुनियर पतिठने उन्हे देख कर बहुन | प्रमका उदे उपदेश दिया।' पीछे महामुनि पशिष्ठने कठोर शाप दिया। अनन्तर कसिद्धिदानो तारिणीने बुद्धरूपा हरिका पाक्य सुन कर फिरसे अ६ पूठा, पति मुनिम का 'मुनिवर ! प्रोध भावेगमें पपों मुझे 'प्रभो। तुम तत्त्वज्ञानमय हो इस महोचानाचारफममें अभिशाप देते हो। मेरी माराधनाप्रम कमान घुद्ध । बा और मद दोनों हा सम्मन है, किन्तु इन दोनोम रूपा जनाद नए सिया और कोई नहीं जाते। तुमा कौन प्रधान है। युद्धदेवनं उत्तर दिया, 'मुने। म विरुद्धाचारका माश्रय पर हो मेरी माराधनामें , आचारम दोनों समान होन पर भी खासे शरोरम भनक हजारों घर्ष विताये, यास्तविक तत्त्वका तुम्द कुछ भी यताका याम है इस कारण ग्रो दो प्रधान है। तस्यष्ठ पता नहीं। तपक्ष अमी युद्धरूपो विष्णुफ निकर भगवानी इन दोनोंके बहु गुणार्सन नपा कौलिक जामो और उनसे मेरा माराधनामम अच्छी सरह मान मास और लाचार द्रध्यक लक्षण और माहारम्प तथा पर फिरसे मेरी बाराधनामें लग नामो, तब निश्वपदा समप्र मदानीनाबारक्रमका पणन क्यिा। मैं तुम पर सन्तुष्ट हंगी।' मुनियर निष्ठो यह सब जान पर उमो माघारका यतिष्ठदेवाका प्रणाम पर महाचीन देशको घर अमलम्यन किया तथा स यतचित्तम धे देवी। भार दिपे। हिमायके पार्षदेनमें रोपेभ्यरसेरित तथा मद / धनार्म लग गए। कुछ दिन बाद नोटावर पर दया मत्त सइस कामिनियोंम परिवेष्टित मदिरापानसे मद महामाया ताराशन कर रहा यश्म यष्ठि! यर Vot I 190