पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष विंशति भाग.djvu/७३८

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वसुदेवग्रामसाद-वसुधारा घसुदेवब्रह्मप्रसाद (स.पु.) एक प्रकार नाम। । (हम) वसूना रत्नाना धारा माततिर्यत्र । २ कुयेरपुरो। यमुदेव (म० पु० ) वमुदेगत् भरतोति भूधिप । श्री | (श दरत्नमाला ) ३ तीयविशेष । (भारत ३६२७२) ___ वसोश्चेदिराचस्प पिया धारा, यमुनो घृतम्प या वसुदेवारमज (स० पु०) वसुदेवस्याताज | श्रीग्य धारा। ४ चेदिराज वसुक उद्देशले धोको जो धारा दी घसुदेव्या (१० नो०) धाष्ठा नक्षत्र । जातो है, उसे वसुधारा कहा हैं। गान्दीमुख श्राद्धर्म घसु यसुदै ( स० को०) धनिष्ठा नक्षत्र । (वृहत्स ०७१११) धारा देनी होती है। यह धारा चेदिराज वसुका अति घसुदेवत (म. क्लो०) घनिष्ठा नक्षत्र । ( वृहत्स०१५।३०) प्यारी है इमोलिये इमे सुधारा कहते हैं। दाधारको यसुद्रुम (० पु० ) उदुम्बर वृक्ष गूलरका पेह । नोधर्म इसका घारा दा नानी है । नान्दीमुख श्राद्धमें पहले वसुधर-एक प्राचीन कपि। पष्ठीमा एडे पादिसरी पूजा करके वसुधारा देना चाहिये। घसुधरा (स.सो.) बौद्ध भिक्षभेद । यसुधाराके बाद धाद्ध किया जाता है। यसुधमा (स.पु.) महाभारतक अनुसार एक राजाका __ यमु श दसे धूत चेदिराज धसुकी प्रीतिगमनाम नाम । घृतक द्वारा पाच पा सान धाराप दी जाती ई। 'द पसुर्मिका (स० स्त्री०) म्पटिक विलौर। धारा न तो बहुत लम्बी और न बहुत छोटी ही होनी वसुधा (स० स्त्री०) वसूनि रत्नानि धाति धारयतीति चाहिये। दीनार पर नामि परिमित स्थानसे यह धारा धाक, सुवर्णादीनामाकरत्वात् नयात्व । १ पृथ्वी । वसु दी जाती है । यह वसुधारा साम, ऋक् तथा यजुदियों धन दधाति पत्ते इति धाधिप। (त्रि०)२धनदाता, की प्रथक पृथक होती है। यसु अर्थात् धन देनेवाला। पहले दीवारफे नाभिपरिमित स्थान सि दूरकी धमुधारतरिका (स. स्त्री०) यसुधा जाता स्वज रिका। १५७ चन्दनकी लकीर पाच कर घृतको धारा देनी भूखजूरिका, खजूरोका पेड। होती है। सामवेदा लोगों को चाहिये कि पहले कोशीमे धुत लेकर निम्मोत मनकापाड पर, इसके बाद वसुधाघर ( स० पु०१पर्वत । २णुि । वसुधारा देरे मात्र यथा- घसुधाधिप (म० पु०) वसुधाया अधिपा । गजा, "यदच्चों हिरण्यम्य यदा बच्चों गवामुत।' पृथिवीपति। सत्यस्य बहाणा पर्चस्तन मांस ससनामसि )" नसुधाधिपत्य (स० लो०) वसुधाया आधिपत्य । यसुधा यजुर्वेदीगण निम्नोत मनसे वसुधारा देवे- का यागिपत्य राज। "चसो पवितर्मास शतधार वसो पवित्रास सहन यसुधान (स० पु. ) पृथ्वो। धार दाम्त्वा सविता पुनातु वसोः पवित्रण शतधारेण पसुधापति (सं. पु.) वसुधाया पति । पृथित्रीपति । सुत्या कामधुश्व।" यसुधापरिपाल (सं० पु०) घसुधाया परिपालकः। ___म मनका पाठ करके एक एक धारा | । सुधापाल्नकारी, राजा। प्रत्येक धारा देनफे समय इस मत्रका पाठ करना यसुधापाल (स० पु०) धसुधापालनकारी, राजा। चाहिये। किन्तु ऋग्वेदियोको पृथक् सात मन्त्रों द्वारा धसुधार (स० पु०) पुराणानुमार एक पर्वतश नाम । सात धाराए दनी होती है । ऋग्वेदियों के मत्र-- (माक • पु० ५५७) १ अप सचर आगच्छन्ता भूरिधारे पयस्यतो। घृत वसुधारा (सं०सी०) यनुवत् रत्नस्यैध धारा यशो प्रघाते सुकृत मुभिप्रते। राजग्म यस्य यस्य भुवनस्य यस्या । १ घौद्धशक्तिविशेष । पयाय-तारा, महायो, रोदसी आत्म रैत सिवित यन्मनुरतम् ।। ओंकार, स्वाहा, श्री, मनोरमा, तारिणी, जया, मनता, अया एवं वनत्तमे तवासना अभिचाक्सीमि । शिग, लोकेश्वरी, आत्मजा, दूरवासिनी, भटा, वैश्या, यन सोम श्रूयते यत्र यहो परते घृतस्य धारा मधुमप्नु नौलसरस्वती, शखिनी, महातारा, धनदाता, त्रिलोचना।। यधने।