पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष विंशति भाग.djvu/७४०

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यसुपरघु तोतों हो पुर्वाधा नाम 'यसुधाधुरखापा। तृतीय पुत्र। सुमधु म य कोई उपाय न देव र उम तीर्थक्क सम्तियाद शाखाध्यायो हो पर पय अहंसम आचरण , मतका खाटन करते हुए एक पहे प्रथको रचनामें प्रवृत्त घरके झानमार्गानुगामी हो गये थे। घे अपनी माताके हुए। इस प्रथके समान होने पर राजाने यसुधाधुको नामानुसार मिलञ्चीवत्स नामसे विख्यात हुप । ज्येष्ठ तीन लाख वणमुना पारितोषिक रूपमें दी थी। इस धन वसुध धुने करिष्ठकी तरह नमागानुगामी होकर से पसुपन्धुो युद्धकी तीन मूर्तियोंका निम्माण किया। भी प्रत शान या मोक्ष लामस वञ्चित होकर आत्महत्या उनमें एक भिणियों के लिपे पर अन्यान्य दो मूर्तियां करनेकी चेष्टा की। रितु पोछे उन्होंने मैले थके निकट मर्यास्तिवाद शानाध्यापो नया महायान साम्प्रदायिक हायान मततिति लाम कर उस मका त्याग लोगा के लिये निदिए थीं। किया । इसके बाद वे जम्बूद्वीपमें लौट थाये पय एकात ____ इसके बाद पसुव धुने पवित्र बुद्धधम पुन: सस्थापन मनस शनालोचनामें प्रवृत्त हुए। इसलिये वे अलग करनेफे लिये बहुरा यत्नक साय वैभाषिक तत्वका यसुबघुफे नामम प्रसिद्ध हुए । जम्बूद्वीपर्म काम करनेक अभ्यास किया। इसफ बाद उन्होंने इस मतके प्रचार समय उन्होंने महायानसत्रका अवलम्बन करके उपदी करने सल्प किया। इस तरह ये मूलप्रथसे रचना की थी। अपना दैनिक पर ता या उपदेशके विषयीभूत अशोका द्वितीय भ्राताने सवास्तिवाद शाखाध्याणी हो कर | सारसग्रह करके उसकी रचा करत थे पत्र उम अन्य दी मातामों को तरह आत्मज्ञान प्राप्त किया था। एसनाको एक ताम्रपत्र पर लिख पर दि दोरैफे साथ उन ममान दुरदर्जा तथा ज्ञानवान उस समय कोइ न सत्र उपदेश दिया करते थे। उनकी गाथाका था। सिर्फ यसुबधुक नामसे विख्यात हुए थे। अर्थविकाश तथा मीमामा देस पर कोई उनके विरुद्ध पद्धनिर्याणकी स्वी शताब्दी वाद विध्याचल पात्र मतप्रशश करने में साहमी ना होता था। इस तरह वासी विद्याकर तीर्थक TIमक एक पडित एक समय सौसे भी अधिक गाथार रचित हो कर समस्त अयोध्या नगरफे राजा बिमादित्यक राजदरवार । धैमाष्यको ध्यादया निष्पन्न हुई। इन सब गाथा में उपस्थित हुए। उहोंने राजसभामें बैठ कर वहाक ! 'का सप्रादप्रय कोप या कोपकार नामसे यिरयात है। बौद्ध-पुरोहितों के साथ शास्त्रार्य करनेकी मार्थना की। व्याप्याप्रय समाप्त होने पर सुधाधुने ५०० स्वर्ण उस समय मणिरात, यसुवधु प्रभृति बौद्ध मनापिगण मुद्रा पुरस्कार पाइ पव उस प्रथको शलरायफे कोह यहा उपमियत नहीं थे। वे कार्योंपलक्षमें राज्यके । अमिधर्ममतानुवत्तों बडे बडे परितोंके ममोप भेज धाहर चास करते थे। उस समय कयल वसुष धुके दिया पवं दे ला भेजा, शिजो पहित डाके मतका गुरु छातिवृद्ध युद्धमिन यहा उपस्थित थे। घे राजाको खंधन करेंगे, ये हो उक्त पुरस्मार पायेंगे। उस प्रयको आशासे शास्त्रार्थ करने के लिये राजसमामें आये मही, पहर पौद्ध-यतिगण बहुत सतुष्ट हुए। उस प्रथमें पर वृद्धावस्थाके कारण कोई विशेष तक नहीं कर बौद्धधर्मका इस तरह विस्तार देव कर घे पद्धित लोग सफे। वात पात हे पराजय होना पडा । राजासे पुर म पुर बहुत भक्ति हुए। उस प्रथा पिसी विसा स्थल पर स्कार प्राप्त कर पधित तीर्थकन अपनी वासभूमि विध्या चलको मध्यान किया। | पच बटुन ही कठिन था, इसलिये उन परितोंने उन दुर्योध वसुबन्धु जब लौट र मापे तब उन्ह मालूम हुआ, पोका गद्यानुयाद करनेके लिये वसुव धुसे प्रार्थना की कि उनके गुर युद्धमित्र एक तायक नामक पतितसे एवं पुरस्कारस्वरूप ०० स्वर्णमुद्राए गौर भेज दी। शास्त्रार्थ में पराजय हुए है । यह सुन पर ये बहुत घिन्न । इसके बाद बसुवघु अमिधमकोष लिम्बने लगे। इस हुए पर उन्होंने उस तीर्थकके साथ फिर शायार्य करने प्रथमें इन्हो ने सर्वास्तिवादमतका यथेष्ट समर्थन किया के लिये उसकी बहुत खोज की वितु दुमाग्यवश दोनों । था एव सूत्रपथनए मतोको नि दा की थी। इससे कालके में मेंटन हुई। चौद्ध परितो के साथ इनका घोर विरोध उपस्थित हुभा । Vol xx 192