पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष षष्ठ भाग.djvu/१५०

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१३८ पड़ता है कि वे श्याके गर्भ तथा देवलके औरसमे जिम ग्रहगणको पृमाके लिये जिम ब्राह्मणाने ब्रह्माके मुखसे संकर जातिको उत्पत्ति हुई है, वही आजकाल आचार्य | शाकद्वीपमें जन्मग्रहण किया, वो दैवज. ब्राह्मण हैं। या गणक कह कर विख्यात हैं। किन्तु परशुरामोक्त बङ्गालके बहुतसे शास्त्रविद् देवन अपनको ग्रहया जातिमालाके मतमे- मलोक्त शाकहीपी ब्राह्मणके जैसा परिचय देते। "बहाद मणको जातो व सागसमावः । शाम्बपुराणमें भी शाम्ब कट क शाकद्वीपसे ब्राह्मण लाने- नववतिथिय गायिनिर्णय कारकः।" की कथा विस्ताररूपसे वणित है । कोगाक पौर याककोपी अम्बष्ठके औरससे वश्याके गर्भ से जो संकर जाति बाम शब्द देख।। किन्तु उस पुराण के ४३वां अध्यायमें- उत्पन हई है उन्हों को गणक कहते हैं। नक्षत्र, तिथि, "न बाा परिवादीन तियिनवः, शिक:यात ॥ योग और ग्रह का निर्णय करना ही इनका उपजीविका इत्यादि वचनोंसे तिथिनक्षत्र निरूपणादि देवतके काम करनसे निषेध किया गया है। मालूम पड़ता है कहीं कहीं गण को वर्णविप्र कहा करते हैं, किन्तु कि उक्त पुराणोक्त निषिद्ध कम करने पर भी कोई कोई पूर्वोक्त दोनों जातिमालामें पतित ब्राह्मणको हो वर्णविप्र शाकहोपी ब्राह्मण दूसरे ब्राह्मगसे नोच एव गणकजातिके कहा गया है, इनमें मंकर जातिको वण विप्र नामसे जम गिन गये होंगे। ब्रह्मवैवत्त के मतानुमार कि जो सोख नहीं किया है- देव ब्राह्मण का धम अपहरण करता है, वह धमान्धकार नरक भोग कर शतजन्म भिन्न भिन्न योनियों में भ्रमण "बाव: पतिताभ त्वा वर्णानां ब्राणोऽभवन ॥" ( ० जाति०) | करनेके बाद शवर (भील), स्वर्ण वार, सुवण वणिक और किमो कारणसे पतित ब्राह्मणको हो वर्ण हिज या यवनसेवी ब्राह्मण हो कर अन्तम गणनोपजीवो देवन वर्णविप्र कहा करते हैं। ब्राह्मणमें जन्म ग्रहण करता हैं। ( द स्पटुम ) परशुरामोक्त जातिमालामें इनके पतित होनका कारण "वसेत् खलोममानान्द नस व नागद गितः । भी लिखा है! ततो भव न स गणको वधश्च सप्त जन्मस ॥" (प्रकतिखस्य) "चत्वारिंशत् नातिभेदा पमी पवा विलोमना। सचमुच गण क जाति की उत्पत्तिकै सम्बन्धमें बहतोका एतवा विगत व पुर था: श्रीवियो हिनः । मतमंद है। जातिमाला प्रान ग्रन्यों में संकर जातिको बोनियः पतितो भूत्वा वर्षामा बामशेऽभवत ॥" जो कथा लिखी गई है, उनमें कहीं भी इतनके सिवा (परम रामोज बातिमा. ) विशेष किसी प्रकारका संकर जातिका उल्लेख देखा नहीं पहले जिन चालीस संकर जातियांकी कथा लिखी मई, वे सबके सब विलोमज है। इनमेंसे बीसके माता है। वर्तमान समयमें फरिदपुर अञ्चलमें पूर्वोक्त पौरोहित्य कार्य करनेमे श्रोत्रिय ब्राह्मण पतित होते हैं सहरजाति ही गणक नामसे परिचित है। राढ़ प्रभूति एवं उन पतित ब्राह्मणोंको ही वण ब्राह्मण कहते है। अञ्चलके शास्त्रविद गणको का कहना है कि उनके साथ इससे साफ साफ जाना जाता है कि वर्ण ब्राह्मण और उक्त जातिका कुछ भी ससग नहीं है। जो कुछ हो गणक एक जातिके नहीं हैं। जो चण्डाल प्रभृति प्रत्येक ग्रन्थका मत भेद रहनसे भिन्न भिन्न गणकातिका निकट जातियोंके पुरोहित हैं, वे वणविप्र और जो रहना पसगत नहीं है। कन्तु वाचस्थत्यने किस.का पूर्वाश संकर जाति है व गगक माने जाते हैं। काल- भी मत ग्रहण न कर चण्डालके औरससे उत्पब गलक- नामसे प्राचार व्यवहार परिवर्तन हो जाने से कहीं कहीं जातिका एक उल्लेख किया है, तथा प्रमाणके लिये दोनों जाति एकमें मिल गई है। "चमकारस्य ही पुत्री यपी वाह! क: यह बाक्य उचत किया फिर भी ग्रहयामलमें लिखा है- है। यह अपूर्ण वचन किस ग्रन्थसे लिया है, इसका "वायाम मातुः शाकदीपसमयः । कुछ भी उन्हों ने उल्लेख नहीं किया है। नूतन संस्करसके ममययनलम देवभो नाममा प्रदकल्पद्रुममें भी उक्त अपूर्ण मश उहत का है।