पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष षष्ठ भाग.djvu/१६२

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गण्डको "सकालो नमस्कारो समझा बदिरी कविता" पुर, सत्सर, मारनपुर, सोहांसो, रेवा, बाग्वा, मज्जा और ( तममाना) सोनपुरमें इसका घाट है। हको ( मं० स्त्री० ) गएक-डोष्। १ गडक जातीय गडक नदी अति प्राचीन कालसे पुण्यमलिना जैसी जी, मादा गड़ा । २ कोई नदी, बड़ो ग'सका। इसका विख्यात है। (स्कन्दपुराण, हितवार एट ८४, पानालखमा ११३१६ दूसरा नाम नारायणी, शालग्रामी और हिरण्यवाह है। भविष्य ब्रावण २०११-१० ) महाभारत-सभापर्व के २०वे यह हिमालयम नेपाल राज्य मध्य अक्षा० २७० २७ अधयायमें लिखा है कि कृष्ण, अजुन और भोममेन कुरु- स. और देशा० ८३०.५६ पू० पर मप्तगडको शैलसे देशसे चल कुरुजाङ्गल पार हो करकं पद्ममरोवर पहुंचे निकल करके दक्षिण-पश्चिमको चल गोरखपुर और चम्पा- थे। वहांसे कालकूट पर्वत अतिक्रम करके वह गडको, एल जिलेक बीचमे मुजफ्फरपुरक पथिम और मारन चक्रावर्त और कोई पार्वत्य स्रोतस्विनी पार हए । जिसके पूर्व प्राप्त होती हुई पटनार्क अपरपार गङ्गामे बौद्धोंकि यथों में भी गडकी नदीका नामोल ख मिलता मिल गया है। गडकौन पूर्व को गोमाईथानक पार्व- है। फिर यूनानियोंके पुस्तक भी इसके उल्लेखसे खाली तीय तुषारराशिमे स्रोतस्विनीरूपमें परिणत हो करके नहीं। मेगास्थिनिसने इसको कतिम (Kandocha चम्यारनके उत्तर-पषिम विवेणीघाटसे नदीक रूपमें tors ) नामसे उल्लेख किया है। टलेमिने इमका कोई प्रवाहित होना प्रारम्भ किया है। यहां पूर्व पोरके तट नाम नहीं लिखा, परन्तु प्रकारान्सरसे इमका वृत्तान्त दं पर कच्चे पत्थरका एक पहाड़ है। उसमें पड़ भरे पडे दिया है। उनके मतमें वह नदो मलेमपुरमे निकल है। इमको दूमरी ओर जङ्गम्न है। यहाँसे हिमालय- शैलपुर वा शलग्राम होतो हुई गङ्गाके माथ जाक जीतषारराशि देख पड़ती है। त्रिवेणीघाटसे प्रायः मिल गयी है। पहले इसमें शालग्रामशिन्ना मिम्मती कोम पथ दोनों ओर वनाकीर्ण है। नदी पहाडी थी । इसीसे गगडकी शालग्रामौ वा नारायणी कहलाती भमि पर बहनमे जल भी परिष्कार है। बाढ़क समय है। कहते हैं कि नारायण शनिक भयमें अपनी मायाक पार्श्वस्थ भूमि दूरस्थ भूमिको अपेक्षा उंचो हो जाती प्रभावसे शैलमय पर्वत बन गये थे । शनिक यह ममझने । किनारे पर जमीनको जो जगह मोचो पडतो पर कीट रूपमे उसके मध्यम प्रवेश कर एक ओरसे वहांसे बाढ़का पानी घुम करके निकटस्थ प्रदेशको दूसरी ओर तक उसको खोद डाला । एक वर्ष तक इसी शावित करता है। बाढ़मे देशको बचानके लिये न प्रकार उत्यक्त होने पर नारायणक धर्म छुटा था। एक खान पर बांध लगाया गया है। इम प्रदेशकी जमीनका हो गण्डसे कृष्णवर्ण और खेतवर्ण दो प्रकारका पसीना पानी इकट्ठा हो करके नदोमें नहीं पाता, दूमरी ओर चला " निकला । उसी काले पसीने क्लया और सफेदसे खेत- जाता है। पहाडसे जहां नदी निकली, अत्यन्त स्रोत गडकी प्रवाहित हुई । इनमें एक पूर्व और दूसरी पश्चि- । फिर बोच बीच भंवरका पानो मिलता, जिसमें मको चली थी । एक वर्ष पीछे विष्णु ने अपना रूप नाव चलानका सुभीता नहीं पड़ता। उससे नेपालका धारण करके प्रस्थान किया, परन्तु शालग्रामशिला नाराय: सबड़ी भले ही आया करती है। वर्फ गल करके जल्ल परूपमें पूजनेको कह दिया । मालग्राम देखो। उमो समयसे निकालनसे यह कभी नही सूखतो वर्षाके पोछे जगह शालग्राम शिला पूजित हुई है। गडकीके जनमें नाराय- बमब इसमें बालकी रेत पड जाती है। कोई ठकाना | णका घश रहनेसे वह हिन्दुओंके निकट अति पवित्र . कब कहा रेत खुलेगी। बरसातमें गरको कहीं। है।३ गडकी नदीको अधिष्ठात्री देवी। और कहीं एक कोस चौड़ी हो जाती है। किन्तु गगडकी देवीने दश हजार वर्ष पर्यन्त बड़े कष्टमें में किसी भी जगह २३ रस्सी ज्यादा चौड़ाई | वायु और पड़ों के सड़े गले पत्ते खा करके भगवान् बनी रहतो.। सत्तरघाट, संग्रामपुर, गोविन्दगञ्ज, बरि विष्णुको पाराधना को थी। विष्णु गडकीको तपस्यासे मारपर, रतवाल, बगहा, नारायणपुर, सनीचरी, सलीम सन्तुष्ट हो करके उनके पास जा पहुंचे। गडकौने चतु-