पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष षष्ठ भाग.djvu/१६८

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___ गतायुः अथवा उम शब्दको सुन हो नहीं सकता, जो धन जङ्गल- वा प्रभा एकाएक बढ़नेसे निश्चय मनुष्यको मरना पड़ता के घोरतर शब्दको ग्राम्य शब्द और ग्रामके जनरवको । है। जिसका निचला श्रोष्ठ गिर और ऊपरी श्रोष्ठ उठ वन्य जन्तुओका शब्द जैमा अनुमान करता, 'जसे बन्ध अाता अथवा दोनोंका रङ्ग जामन-जैसा काला देखाता, बान्धवों की बात सुनना अच्छा नहीं लगता और सुनत उमका आयुः शेष हो जाता है। दांत कुछ लाल, नोले सुनाते भी उमको अपना अनिष्ट र ममझ करके कु पत अथवा बहुत काले पड़ जानसे प्रायः शेष हा समझत पड़ता और शत्र की कथा वा उपदेश जसको बहुत प्रीतः | हैं। जिमका जिहा कृष्णवर्ग, स्तब्ध, अवलिप्त, कर्कश कर जंचता, उमा अायुः शेष हुआ जैमा ठहराना | वा म्फीत स्नगती, जिमको नामिका वक्र, स्फटित, शुष्क, चाहिये । जो वाक्ति उशा को शीतल और शीतल को उषा अवनत वा उन्नत रहती, जिम दोनों चक्षुओंमें छोटाई जैमा ग्रहण करता, शीतमें शरीर रोमाञ्च होते भी जमका | बड़ाई देव पड़ती अथवा उनमें क्षुद्रता, निश्चलता, रक्त गात दाह नहीं मिटता, शरीर अतिशय उषण रहते भी वण ता अथवा अधोदृष्टिविशिष्टता रहती और जिमको जो शीतसे कंपन लगता, प्रहार वा अङ्गच्छेद करते भी। अखि लगातार आई रहती, उमक मरन में कोई कमर जो वेदना अनुभव नहीं करता, जिसके शरीरम अक | नहीं पड़ती। वाल दोनों ओर बिखर पड़ने, भौहें घटन स्मात् वर्णान्तर वा रेग्वा जैमा चिह्न निकल ण्डता, चन्दन या बढ़ने और आंखोकी बिनिया उखड़नेमे रोगी शीघ्र लगानमे जिम शरीर पर नील मतका आश्रय करतो, प्राणत्याग करता है। जो व्यक्ति मुखस्थित अन्न ग्राम अकस्मात जिमर्क शरीरमे सुरभि गन्ध नकल पड़ता, नहीं कर मकता, मस्तक भीधा नहीं रग्व मकता और वह शीघ्र ही मरता है। एक प्रकार रम पास्वादन करक एकाग्रदृष्टि तथा अचेतन रहता, शीघ्र ह. मरता है। अन्य प्रकार ममझने और मभी रमों अथवा मिथ्या आहा रोगी मबन्न हो या दुर्बल यत्नपूर्वक उठा करके भी रम दोष वा अग्नमान्य बढ़नसे, कोई रम वा मुगन्ध | बठानमे मूर्छित होने पर बचनको आशा न करना दुर्गन्ध मालूम न पड़न अथबा घ्राणशक्ति एक वारंगी हो । चाहिये। जो रोगा चित लेट करके पैरों को मिकीड़ता बिगड़ने शौत, उष्ण आदि काल अवा वा दिक् विषय- या मर्वदा फैलाने का अभिन्नाष करता, जिमका हाथ, में विपरीत ज्ञान रहन, दिनको आकाशमगडनमें प्रज्वलित पर बहुत ठगड़ा रहता और ऊर्ध्व वाम, छिन्नखाम वा नक्षत्र वा चन्द्रकिरण और रात्रिी ज्वलन्त सूर्य, मेघ- काककी भांति मुग्व विकृत हो करकं वाम निकलता, शून्य आकाश में इन्द्रधनु वा विद्य त् एवं निर्मल आकाश- उमका आयुः शेष हुआ समझ पड़ता है। निद्रा भङ्ग में कृष्णवर्ग मेघ देख पड़न, आकाशमण्डल अट्टालिका न होने, मर्वदा जागरित रहने, कोई बात हने पर षा विमानयानसे परिपूर्ण तथा भूमण्डल धम, नोहार मो : लगने, नीचेका अोष्ठ लेहन करने, भारी डकार वा वस्त्र द्वारा प्रावृत जैमा लगने, ममम्त लोक प्रज्वलित उठने और प्रतर्क माथ बात चलनसे रोगोका मृत्य आ अथवा जनप्लावित जैमा जंचन: अरुन्धतो, ध्र व, आकाश, जाता है । शरीर किमो प्रकारमे विषदूषित न होत भी गङ्गा, उपाजन्न तथा ज्योतना एवं आदर्श में अपनी जिम रोगीक रोमकूपमे लह निलता, तत्क्षणात् प्राण छाया न देख पनि अथवा अङ्गहोन विकत वा कुक्कर, त्याग करता है। वाताष्ठीला रोगमें अष्ठीलाकै अवं- काक, ग्यध्र, पंत, यक्ष, गक्षम वा पिशाचको वाया जैमी गामिनो हो हृदयमें आ जाने और उसमें र यन्त्रणा लगन और निर्ध म अग्नि मयूरक कण्ठ-जैमा लगनसे सस्थ और अनमें अरुचि दिग्वानमे मृत्य निश्चित है। विना शरोर रहतं भो पोडित होते पोर पोडित होने पर मरत किमो दमर उपद्रवके पाद नारोका गद्यदेश अथवा मख है। मुत्रन मूब ३० १०) सूज जानिमे भो रोगीको गत यु समझते हैं। अतीसार, श्वाव, लोहित, नोल वा पोतवर्ण छाया जिमका ज्वर, हिका, वमी, अगड़ तथा मेट्देशको स्फीतता आदि अमुगमन करतो, उसकी मौत अवश्व प्रा पहचती है। उपद्रव होनमे श्वासरोगो वा काशरोगीके जोनको आशा हठात् लज्जा वा स्त्री विनष्ट होने अथवा तेज, बन्न, स्म ति करना वृथा है। अतिशय धर्म , दाह, हिक्का और खाम