पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष षष्ठ भाग.djvu/१७९

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१७७ मिरो मत: सिन्धो पो विशद एक मतसे रसका गुण-कटु, उष्ण, तीठ, अतिशय अम्नि एवं विधी : पार्थिवो मंध इत्यत।" (भारत १४५. प. वृद्धिकर है। यह तमि, प्लीहा और नगेगनाशक १ इष्ट. २ अमिष्ट, ३ मधुर, ४ अम्ल, ५ कट, ६ माना गया है। ( राजवल्लभ ) मिर्झरी, ७ संहत, ८ स्निग्ध, ८ रुक्ष, १० विशद । इनमेंसे भावप्रकाशमें गन्धककी उत्पत्तिके मम्बन्धम डम प्रकार कस्त री प्रभृतिका गन्ध इष्ट, विष्ठादिका गन्ध अनिष्ट, लिखा है-किमी एक दिन देवी भगवती खेतहीपमें मधुयुक्त पुष्पादिका मधुर, मिर्च का कटु, हींगका निर्हारी, क्रीड़ा कर रही थी। इसी समय उनका परिधय वस्त्र मिथितका चित्र, तप्त इतका निग्ध, सरसों तेलका रुक्ष, आर्त व रक्तमें रंग गया । पर्वतनन्दिनी नजामे चञ्चल हो शालोतराड,लका विशद और इमली प्रभृतिका गन्ध अम्न | उम वस्त्रको परित्याग न कर क्षीरसमुद्री मान करने माना गया है। लगीं । उम वस्त्रसे रज: नि:सृत हुआ और डमीमे गन्धक- कालिकापुराणके मतसे सुरभिगन्ध पांच भागोंमें की उत्पत्ति हुई । गन्धक वर्ण भेदसे चार प्रकारका विभक्त है -चूर्गीकत, पृष्ट, दाहाकषित, सम्मर्दजरस है यथा रक्त, पीत, खेत और क्लष्णवर्ण । स्वर्णमंस्कार और प्राणीके अङ्गममुद्भवरस । गन्धद्रवाके चूर्ण तथा विषयमें रक्तवर्ण, रमायन क्रियामें पीतवर्ण और व्रणा गन्धपत्र वा पुष्पके च गोको चर्गीकृत गन्ध कहते हैं । पालेपन विषयमें वेतवर्ण गन्धक प्रशस्त है । क षणवा चन्दन, मग्न और नमेरुके घर्षणके लिये गन्ध एव अगुरु गन्धक स्वर्णसंस्कारादिमें प्रशस्त है, किन्तु वह बहुत कम प्रभृति घर्षण हारा जिसका पङ्ग निर्गत करके देवताको पाया जाता है । अशुद्ध गन्धक कुष्ठ, पित्तरोग और अर्पण किया जाता है उसको पृष्ट गन्ध कहते हैं। देव भ्रान्तिजनक एवं वोर्य, वन और रूपनाशक है। इस दारू, अगुरु, पद्म, गन्धमार और चन्दनप्रियाको चुवाममे | लिये गन्धक शोधन किये विना प्रयोगमें नहीं लाना जो सुगन्धिरम निकलता है उमोका नाम दाहाकर्षित है। चाहिये। सुगन्ध करवीर वि , गन्धिनी एवं तिलक प्रभृतिको गन्धक योधन-प्रणाली-एक लौहनिमित पात्रमें कट करक जी रम निकला जाता है वही मम्मर्दजगन्ध घृत देकर अग्निमें उत्तप्त करना चाहिये । वृतर्क गरम है। मृगनाभि या उमके कोषसे जो गन्ध उत्पन्न होता है होने पर उमके ममान परिमाणका गन्धकच र्ण उसमें उमको प्राण्यङ्ग जगन्ध कहते हैं । यह स्वर्गवामियोका | डाल देना चाहिये। जब गंधक जल जाय तो उसे वस्त्रमे अत्यन्त आमोदप्रद है । (काधिकापुराप पर प०) छांक कर दुग्धमें मिला देना चाहिये ऐसा करनमे गधक तन्त्रसारका मत है कि मध्यमा, अनामिका और | शोधित हो जाता है। शुद्ध या शोधित गन्धक गुण- अंगुष्ठकै अग्रभाग द्वारा देवताओंको गन्ध देना उचित | कट , तिक्त, कषायरस, उष्णवीर्य, पित्ततिकर, सरगुण- है। गंधयक्त देखो। विशिष्ट, कट पाक, रमायन एवं कण्डु (खुजली), विमप, २ लेश, छोटाई, कण। ३ मम्बन्ध । ४ गन्धक । क्रिमि, कुष्ठ, क्षय, प्रोहा, कफ और बायुनाशक है। ५ गवे, अहङ्कार, घमंड। ६ शोभाञ्जन, सहिजन । (त्रि.) (भावप्रकाश पूर्व भा.) ७ गन्धयुक्त, जिसमें गन्ध हो । ८ प्रतिवेशी, पड़ोमी । __ रसेन्द्रसारसंग्रहके मतमे गधकको शोधन-प्रणाली- (लो) कृषणागुरु, काला अगर । एक मट्टी के बरतनमें दूध और पृत रख कर कपड़ेसे बरतन गन्धक (स'. पु०) गन्धोऽस्यस्य गन्ध-अच ततः स्वार्थे का महबधि दे और उसके ऊपरमें गंधक रख एक ढक्क- कन् । १ शिग्र वृक्ष, शजनीका पेड़। २ उपधातुविशेष, नमे ढक कर सन्धिस्थानमें लेप लगा दे। इसके बाद उसे पोले रंगका धातु। पर्याय-गन्धाखा, सौगन्धिक, गन्धिक, मिट्टीमें गाड़ कर जपरमें अल्प उत्ताप देनेमे गंधकं गल सगन्धिक, गन्धपाषागा, पामान, गन्धमोदन, पूतिगन्ध, | कर दूधमें टपकन लगेगा । इस विशद गधकको औषध- अतिगन्ध, कीटन, शरभूमिज, गन्धी, वर, सुगन्ध, दिवा- में प्रयोग करना चाहिए। विश्व गंधकका गुण-रमा- गन्ध, रसगन्धक, कुष्ठादि और क रगन्ध है। वैद्यकके | यन, सुमधुर, पाकमें कट और उषा है, तथा इससे कण्ड Vol. VI. 45