पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष षष्ठ भाग.djvu/१८२

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१८० गवतुलसो-गवधिप मतका खण्डन किया है । तम्मान मन्द विस्त त विवरपदेश। । युक्त होता है। इसोका नाम गधतैल है। गन्धतुलमी ( म स्त्री० ) सुगन्ध तुलमी, गोलाप तुलसी। (बुत चि. ..) गन्धतूये ( म० ली.) गधे हिंसास्थान, युद्धक्षेत्र आहन्य- गन्धत्वर (म. ली. ) गधप्रधाना त्वक् यस्य, बहुव्री । मान तूर्य। रणवाद्यविशेष, लड़ाईको तूरी, बाजा। गंधद्रव्यविशेष, सुगध वृक्षका छिलका, एलवालुक, इसका पर्याय -पणतूर्य और महास्वन है। एलवा। गन्धरण (सं० लो० ) गन्धप्रधानं टणं मध्यपदलो० । गन्धदला ( सं० स्त्रो० ) गन्धयुक्त दलं यस्याः, बहुव्री० । गन्धयुक्त विशेष, रु साधाम । इसके पर्याय--सुगन्ध, अजमोदा, अजवायनको तरहका एक पेड़। भूटण, सुरस, सुरभि और मुखवास है। इसके गुण गन्धदार ( सं० ली.) गन्धप्रधान दारु। चन्दन । यह तिता, सुगन्धि, रसायन, स्निग्ध, मधुर, शीतल्न, कफ, गन्धद्रवा ( सं० लो० ) गंधप्रधानं द्रवा। १ नागकेशर । पित्त और थान्तिनाशक है। (रामि० ) तैल पाक होने पर जिन द्रवीको डाल कर औषधको गन्धतेल (मं० लो०) गन्धयुक्तस्य चन्दनस्य अग्नियोगेन | सुगंधित करते हैं, वैद्यकशास्त्रमें उन्हींको गधद्रवा कहते अनितं तेलं, मध्यपदलो०। १ गन्धयुक्त तेलविशेष । हैं। इलायची, चन्दन, कुकुम, अगुरु, मुरा, कक्कोल, इमको चन्दनका अतर भो कहते हैं। जटामांमी, श्रीवामच्छद, चोरक, कर्पूर, शैलज, उशीर, "प्रदीपः काचनकाब गधोना मिचितः।" ( भारत ) कस्त री, नखी, रोहिषटमा, मोथा एवं लवङ्गादि गध- २ सुश्रुतोक्त औषध और तेलविशेष। इसकी पाकः | ट्रवा कहलाते हैं। प्रणाली रम तरह है.--कृष्णतिलको रात्रिके ममय जलमें गन्धद्रावक ( सं० क्ली० ) गंधयुक्त द्रावकं । प्रीहादि रोग- डवा देना चाहिये एवं दिनमें सूर्यको गर्मी से सुखा कर नाशक ओषधविशेष, एक प्रकारका अर्क। इसकी प्रस्तुत- गोदुग्धर्म भावना देनी चाहिये। तीन रात्रि वा मात प्रणाली यों है...-ग'धक तथा सोराको यन्त्रयोगसे जला रात्रि इमी तरह करने के बाद मधुमिश्रित जलमें भावना कर उसका धूम मोके पात्रमें जलवाष्पके माथ मिश्रित देते रहें अनन्नर गोदुग्धको भावनामे सुखा कर पूर्ण कर किया जाता है। इमोको गन्धद्रावक कहते हैं। इसके डालें और काकोल्यादिगण, यष्टिमधु, मनिष्ठा, श्यामालता, गुण-अग्निवीर्य, अतिशय उग्र, प्लीहादि पौड़ानाशक, कुड़धुमा, जटामांसी, देवदारु, रक्तचन्दन और शतपुष्प अग्निवृद्धिकर और सर्व प्रकारके उदररोगविनाशक इन सबका चूर्ण पूर्वोक्त तिनके चूर्ण में मिला दें। गुड़त्वक् , हैं। रक्तस्राव, अतिशय धर्म, विसूची, तरुणज्वर और इलाची, तेजपात, नागकेशर, कर्पर, ककोल, अगुरु, कुङम अम्निमान्धादि रोगों में यह विशेष उपकारी है। परिमित और लवंगको दुग्ध पाक करें और उस दुग्धमें वह समस्त | द्रावक चौदह गुना जलमें मिला कर बिन्दु सेवन करना चूण पाक कर तेल बाहर निकाल लें । उस सेलको फिरसे चाहिये। यह अत्यन्त दाहकर होता है। विना जल- चतुर्गुण दुग्धमें पाक करें। इसके बाद इलायचो, शाल के सेवन करना अहितकर है। पर्णी, तेजपात, जीरक, तगरपाटुका, लोध, शैलज, सैयिक, गन्धद्रावकको अंगरेजो भाषामें Sulphuric Acid शुष्क भूमिकुष्माण्ड, अनन्तमूल, मधुलिका और शाटक या Oil of Vetriol कहते हैं। यह कभी कभी पानय को एकत्र पेषण कर उष्ण तेलके साथ थोड़ो आगमें पाक | पर्वतके निकट अल्प परिमाणमें मिलता है। यह गंधक करें । प्राक्षप, पक्षाघात, तालुशोष, अहित, सामक, वायु पौर सोरासे प्रस्तुत किया जाता है। इसको प्रस्तुत रोग, शिरोरोग, कर्णशूल, हनुग्रह, वधिरता, तिमिररोग | प्रणाली आत्रेयसंहितामें लिखी हुई प्रणालीसे. बहुत पौर क्षीणता इन समस्त रोगों में खाने, मई न करने, सूंघने | कुछ मिलती जुलती है। और भोजनमें इस तेलका प्रयोग करनेसे उक्त रोग नष्ट हो | गन्धहिप ( स० पु०) गधप्रधानो मदगधयुक्तो धिपः । जाते है। इसके सेवनसे ग्रीवा, स्क'ध और वक्षस्थलको मदग'धयुक्त हम्ती, उत्कष्ट हस्ती, अच्छा हाथी । वृद्धि होती है और मुख पद्मसा प्रफुल्ल पौर निवास सुगंध- | "गपरिपन व मतानाधः ।" (किरात ११.)....