पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष षष्ठ भाग.djvu/२०७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

गया करना चाहिये। दानान्तमें यही मन्त्र पढ़ करके मौनाक- मयागन्य मत दिन विग निक न: कता." को नमस्कार करते हैं। धर्मारण्यके पूर्व को ब्रह्मतीर्थ है। महाभारतमें कहा ___ उमके पोछ ( दूर्मा दिन) फला तीर्थ गमन करना है कि धर्मारण्योपशोभित ब्रह्ममरतोर्थ में गमन करने चाहियं । यह तीर्थ अति प्राचीन है। महाभारतमें ब्रह्मन्नोक लाभ होता है। ब्रह्माने उम मरोवरमें एक यूप- भी लिखा है कि गयास्थ फल्ला तोथ जानसे अश्वमेधका काष्ठ निवात किया था । उस यूपको प्रदान करनेसे फल और महामिद्धि-लाभ होता है । ( वनपर्व ८४०) अश्वमेधका फन्न मिलता है। गयामाहात्माके मतम सत्ता वायुपुराणोय गयामाहात्मार्क मतानुमार पूर्व कालको ब्रह्मकप भार ब्रह्मयूपमें थाड करनमे पिटगणका उद्दार ब्रह्माको प्राथ नामे विणने फलारूपो हो करके दक्षि होता है । इमो के निकट (बोधगयास्थ) महाबोधि नामक णाग्निमें जो होम किया, उभीको रजःकणासे फला तोथ अश्वस्थयम है। धर्म और एम श्वरको नमस्कार करके बना है। गङ्गा विष्णुको पाद जाता हैं। किन्तु फन्ना, महाबोधितहको निम्रलिखित तीन मन्त्रांमे नमस्कार तीर्थ स्वय आदिगदाधरके द्रवीभूत होनसे बनन पर करना चाहिये . गङ्गामे थेष्ठ है। त्रिभुवनके मकल पवित्र तौथ ना - 'चनदनाय दक्षाय मदा स्थिति है। वे । कालको फला तोथ में मम्मिलित होत हैं। वाधिमत्वाय यजाय अपत्यायनमा नमः ॥ एकादशोऽसि बद्राण वमन -14 कम्तथा । (गयामाहात्मा ७११४।१७) नारायणाऽमि देवानां चरान मि विपन अग्नपुराणके मतमें गयाशिर ही फला तीथ है। अश्वत्य यस्मात्य राज नारायसिनि म कालम् । फला तीर्थ में नान करके गदाधर दर्शन करनेसे जो सुकत अत: गुस्न मत तयाँ धनमामि दुम्वविना नाम लाभ होता, और किमी प्रकार भो मिल नहीं मकता । अग्नि पुराण ( ११६।३७ ) में भी लिखा है कि महाबोधि (पग्रिपुराण ११ ५.२६) गयामाहात्मामें अन्यत्र कहा है कि तकको नमस्कार करनसे धर्म और स्वग लोक मिलता नागकूट, गृध्रकूट और उत्तरमानम मबर्क मध्यवर्ती है। किन्तु महाभारत में इस महाबोधितक अथवा धर्मख- स्थानका नाम गयाशिर वा फला तीथ है। मुगडपृष्ठ रका कोई उल्लेख नहीं । वुडदेवक अश्वत्थवृक्ष मूलमें पर्वतकै निम्नस्थानमें हो फन्ना तीर्थ पड़ता है। यहां -- महाबोधि लाभ करनसे बोड ममाजम यह महाबोधितर "फला तीर्थ विषा जले कमि सानमादृतः । कहलाता है। पिता विधाना काय मनिक प्रसिद्धये ॥ ब्रह्ममरके निकट गोप्रचारती है। आजकल्न वहां मन्त्रसे स्नान तथा तपंग करके प्रतशिलासलग्न एक आम्रवृत्त रह गया है । गयामाहात्मा मतमें वर ब्रह्मकुण्डमें नहा स्वशाखाके अनुमार श्राद्ध और पिण्ड- प्रामवृक्ष ब्रह्मप्रकल्पित है। इसके वृक्षमूलको-- दान करना चाहिये। पीके- "बासरीमत' सबद यमय तरूम। "भमः शिवाय देवाय ईशान परुषाय च । विसरूप प्रसिञ्चामि पिता मुनि नये ॥" अघोर वामदेवाय सद्योजाताय गम्भवे ॥ मन्त्र पाठ करके सींचना चाहिये। फिर ब्रह्मयूपको प्रद मन्त्रसे पितामहको और फिर- क्षिण करके--- "नमा वासुदेवाय नमः सडष पाय च। "श्रममा ब्रह्मणेऽनाय जमजन्मादिकारिय। प्रय सायाभिरुडाय श्रीधराय न विथ वे ॥" भक्तानाच पिरणाम सारणाय नम स्तु ते॥" मन्त्रसे गदाधरको प्रणाम तथा प्रजा की जाती है। मन्त्र पढ़ कर ब्रह्माको प्रणाम करते हैं। उनके पीछे तोमरे दिन धर्मारण्यको गमन करते हैं। इस स्थान यथाक्रम यमवलि तथा कुक्क रवलि दिया जाता है। पर धर्मराजने यन्न किया था। यहां मतङ्गवापोमें स्रानान्त- यमवलि चढ़ानका - को तर्पण तथा श्राद्ध करना चाहिये। पीके निम्नलिखित "मराज धर्मराज मिश्वनार्थ हि सस्थिती । मन्त्रमे मतगश्वरको प्रणाम करते हैं- साभ्यां वनि प्रदास्यामि पिय मुक्तिसिद्धये ॥" "प्रमाया देवताः सन्तु लोकपालाच साक्षिणः । और कुक्क र वलिका मन्त्र- Vol VI.52