पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष षष्ठ भाग.djvu/२३४

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२३२ गर्भ मम्सक और जठर हारा योनिहार निरोध करता, कोई तरह पर बंटनसे कई बच्चे निकलते हैं। विकृत कफ शरीरको बदन करके कुखदेह निकलता है । कोई आदि मलीम विजातीय और विक्कतगर्भ सन्तान उप गर्भ एक हाथ, काई दोनों हाथ टेढ़ा करकैतिरछा लगता, जता है । ( वाभट ) कोई अधोमुख, कोई आम पाम घूम करके ठहरता है। सुश्च तक मतमें पूरे १६ वर्ष को स्त्री २० वष वाले गर्भ को यही अष्टप्रकार गति है। दूमरी भी चार प्रकार- पुरुषर्क माथ मङ्गत हान पर गर्भागय, हृदय, रक्त, शुक्र, की चाल मडोलक, प्रतिखर, परिघ और वीज कहलाता वायु, और पथ विशुद्ध रहनमे बलवीय वान् पुत्र उत्पन्न है । जो गभस्थ शिशु हाथ पांव ऊपर उठा करके मस्तक होता है। स्त्रो पुरुषको उम्र इमम कम पड़ने पर रोगो, हारा कीलक जमा योनिहारमें आ मिन्न जाता, कोलक ___अन्यायु और अल्पबुद्धि शिशु उपजता अथवा एकबारगी कहलाता है। इमो बच्च को खुर जैमा देख पड़न पर हो गर्भ नहीं उठता। प्रतिखुर कहते हैं। दोनों हाथ और मत्य के माय योनि- स्त्रियोंका रत: रजोमय और पुरुषों का वोर्य वीज- गत होनेमे बच्चे को वीज कहा जाता है। परिघकी तरह विशिष्ट होता है । इमोसे मयोग द्वारा गर्भ की उत्पत्ति योनिमें पहचनमे शिशुको पग्धि बतन्नात हैं । ( माधवधर) होतो है। पहले दिन शुक्र शोणितक योगमे कलल बनता जिम गर्भिगोके अङ्ग ठगडे तहत जिसे लज्जा नहीं है। दश दिन पीछे वही खुन बुलबुला जमा बन जाता पाती और जिमको मभी शिगए नौनव" लगती और और १५ दिनमें गाढ़ा पड़ करके २० दिनमें मांमके पगड उठी रहती, वह मानमिक तथा आगन्तुक मन्तापसे जेमा दिखाता है। एक मामकै मध्य उममें सूक्ष्म पञ्चभूत तथा व्याधिसे बहुत पीड़ित होती और उमक पेटम हो तथा पञ्च इन्द्रिय उत्पन्न होते हैं ! ५० दिनमें अङ्ग आदिके गर्भ गन्न जाता है। अङ्गुर, तोमर महीने हाथ पांव और माद तीन महीने में जिम स्त्रीका गर्भ नहीं हिलता डलता, जिमर्क मस्तक आता और उममें मार भर जाता है। चौथे महीने देहका वर्ण काला तथा पोला लगता, जिमको शाथ रूए', पांचवें महीने मजोवता, कठे महीन चाल, आठवें उठता और जिमके माम छोड़नसे पूतिगन्ध आता उमका महीन जठराग्नि और नवें महीन चेष्टादि होते हैं। फिर गर्भस्थ शिशु मरा हा समझा जाता है । ( माधवका ) वह गर्भ में नहीं रहना चाहता और दशवे या ग्यारवें कामहंतु स्त्री-पुरुष संयोगमे विशुद्ध शुक्रशोणित महीने यही गर्भ प्रसूत हो जाता है । ( हास) बारा उत्पन्न होनेवाला स्त्रियोंका गभ कलन्न कहलाता सुश्रुतके मतमें पहला अङ्ग, मस्तक और उमका उपाङ्ग है। शोणितर्क आधिक्यमे कन्या, शुक्राधिक्यम पुत्र और केशममूह है भोके बीच में मस्तिष्क वा धृतिका होती शुक्र तथा शोणित दोनीको बराबरीमे नमक उत्पत्र है। फिर ललाट, दोनी भौहें और दोनों आंखें हैं, होता है। (गाधर) जिनके भीतरी भागमें दो पुतलियां रहती हैं। दोनों जीवात्मा अपने पहले किये हए कर्मीक क्ले शाम प्रेरित पाखोंक दो डोले काले और उनके किनारे दो मफेद भाग हो कर विशुद्ध शुक और शोणितके मम्मेलनमे अरणि होते हैं। अग्दिों के नोचे और ऊपर बिरनियां, उसके घर्षण हारा अग्न्य त्पत्तिको तरह गर्भ के आकारमें जन्म बाद अपात्र या कोरें हैं। फिर क्रमश: दो शत, दोकान ग्रहण करता है। फिर माताक आहार-रमजात वीज- और उनके दो छेद और कानको लौर आती हैं उसके पो सूक्ष्म जोवनोशक्ति ममन्वित महाभुतसमूह द्वारा बाद लगातार नाक, होंठ, अधर, गलफड़े, होठोंका गर्भ में धौ धार वह बढ़ता है । स्फटिक पर सूर्य का रश्मि किनारा, मुह, तालू, दो जबड़े, दांत, दांतांकी मेंड, जीभ, जमे चन्नता, जो भी गर्भ में हिला इला करता है। डडी और गला है। दूमरा अङ्ग ग्रीवा या गर्दन है। सभी कार्यामे कारण लगा रहता है । इस लिये जीव यह ग्रीवा मस्तकसे मिली हुई है। दोनों हाथ तीसरा गले लोहको तरह बहुतसे पाकारोंमें परिणत हो करके अङ्ग है। उसका उपा-ऊपरी भागमें दोनों कन्धी, सरह सरहको निराली सूरस बनाता है। हवासे बात उसके नीचे दो प्रगया, उसके निम्रभागमें दो कहानियां,