पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष षष्ठ भाग.djvu/२४३

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गर्भाधान परागरने सपष्ट ही कह दिया है-जो व्यक्ति हटा | धर्म शास्त्रके मतमें रजोदर्शनको पहलो तोन रातोके कहा रहते भी ऋतुमती भार्याको अभिगमन नहीं करता, | बाद शुभ वार. तिथि और नक्षत्रमें गर्भाधान संस्कार उसको बालकहत्याका पाप लगता है। इससे साफ समझ करना चाहिये। किन्तु गोमिलन ऋतुमती स्त्रोका पड़ता है कि प्रतिवन्धक न रहनेमे प्रथम ऋतुको ही गर्भ शोणित स्राव बन्द होने पर ही सङ्गमकाल बतलाया है, मस्कार करना चाहिये, नहीं करनेसे पाप चढ़ता है। किसी रात या दिनकी गिनती नहीं। इससे स्पष्ट हो आखलायन यद्यपरिशिष्टमें प्रथम ऋतको ही गर्भाधा समझ पड़ता है-तुके पोछे जितने दिन गोणित गिरता, नकी बात है- सङ्गम वा गर्भाधान करना अनुचित ठहरता है-करनेसे "आयतु मत्याः माकपन्यमती प्रथम उनकी मि सुखातयाम्बारमः | सन्तानका अनिष्ट उठता है। दूसरे धर्म शास्त्रकारोंने प्राजापत्यस्य स्थालीपारस्य कुत्वं ता पानाहुती कात" प्रायश: तीन रातोंके पीछे रक्त पतन बन्द हो जानसे विवाह पीछे ऋतुमती स्त्रोके प्रथम ऋतम ही शुभ तीन रातोंका उल्लेख किया है। रजोदर्शनके प्रथम दिनको गर्भाधान कार्य के अनुष्ठानमें प्रवृत्त हो प्रजापति दिनसे मोलह रात तक ऋतुकाल कहलाता, इमोके देवताकै उद्देशसे चरु पाक करके वृताहुति देना चाहिये। बीच गर्भाधान किया जाता है। युग्म रात्रिको गर्भा- गृहापरिशिष्टके इम विधानसे माफ मालम पड़ता है कि धान करनसे कन्या और अयुग्मको उममे पुत्र उत्पब विवाहक पीके प्रथम ऋतुको ही गर्भाधान संस्कार कर्तव्य होता है। चतुर्दशी, अष्टमो, अमावस्या, पूर्णिमा, है। गर्भाधानको यह प्रथा हिन्दुओं के ममाजमै चिर दिनसे रविवार और मक्रान्ति दिवमको गर्भाधान करना चली आती है। देशभेदसे इमोका नाम पुनर्विवाह, पुष्पा- निषिद्ध है। फिर ज्य ठा, मूला, मघा, अश्लेषा, रेवती, त्सव, फलशोभन फ लचौक आदि पड़ा है । मब देशोम | कृत्तिका, अश्विनी, उत्तराषाढ़ा, उत्तरभाद्रपद और उत्तर मभी श्रेणियोंकि हिन्दू विशेष प्रतिबन्धक न रहनेसे गर्भा फला नी नक्षत्रमें भो गर्भाधान करना न चाहिये। हम्ता, धान संस्कार किया करते हैं। प्राचीन स्मृतिम ग्रहकागें | श्रवणा, पुनर्वस और मृगशिरा कई नक्षत्रों को पुनक्षत्र और उनके परवर्ती रघुनन्दनने प्रथम रजथावको ही गर्भाकहते हैं। यह गर्भाधान कार्य को शुभ हैं। इसके धानका विधान किया है। लिये रवि, मङ्गल और वृहस्पति वार तथा वृष, मिथन, सुथ तक मतमें वालिकाका गर्भाधान निषिद्ध है। कर्कट, सिंह, कन्या, तुला, धनु और मीन लग्न प्रशस्त पचीस वर्ष से नीचेका पुरुष १६ वर्ष से छोटी स्त्रीका होते हैं। गर्भाधान करनेसे वह गर्भ पेटमें हो विनष्ट हो जाता भरद्वाजक मतमें रजस्वला स्त्री प्रथम दिन चण्डालो, अथवा जात बालक अधिक नहीं जो पाता, किसी प्रकार द्वितीय दिन ब्रह्मघातिनी और तृतीय दिनको रजकोको से बचन पर भी टुवला दिखाता है। इमो कारणसे भांति अपवित्र और अस्पृश्य रहती है। वह चतुर्थ बहत छोटी रमणीका गर्भाधान न करना चाहिये। कोई दिवमको शुदिनाम करती है। चौथे दिनसे सोलर कोई बतलाना है कि भिषकशास्त्र वा ज्योतिष शाका दिन तक गर्भाधानका योग्य काल है। सिद्धान्त धर्म शास्त्र विरुद्ध होनेसे अग्राय है। अतएव वृहज्जातकक निषकाध्यायमें लिखा है कि गर्भक सुश्रुत का यह मत धर्म शास्त्र विरुद्ध जैसा आदरणीय प्रथम मामको शुक्र और शाणित मिलता है। उसोका नहीं। फिर किसोके मतम देशभेद तथा कालभदसे नाम कललावस्था है। उक्त ममयका अधिपति शुक्र सुश्रुतका मत चलता था, सव देशों और सव समयोंके होता है। हितीय मामको गर्भ अपेक्षाकृत कठिन पड़ लिये वह कब पादरणीय रहा। इसी प्रकार अपर जाता है। उसका अधिपति मङ्गल है। तृतीय माम- अपर स्थानाम भी पूर्व प्रदर्शित धर्म शास्त्रके विरुद्ध जो को हस्तपदादि उत्पन्न हुआ करते हैं। उसका अधि. दो एक मत देख पड़ते, हिन्दू उनका अन्यरूप तात्पर्य । पति वृहस्पति है। चतुर्थ मासको अस्थिका सन्चार रखने या उनकी दूसरो व्याख्या करते हैं। विवाह देखो। | होता है। उमका अधिपति सूर्य है। पचम मासको Tol VI. 61