पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष षष्ठ भाग.djvu/२४५

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गर्भाधानक्रिया-गर्भिणी २४३ नासिका रन्ध में आघ्राण द्वारा पहुंचा देते हैं। उसके । वती नारी, अन्त:सत्वा, हामिला. जिमकं पेटमें बच्चा रहे पोछे- 'गध ऽसि विश्वा रसमसममि" इत्यादि मन्त्र पाठ करके "सुगमनौः कुमारांव गागमा गर्भिणीम्तथा । उपस्थेन्द्रिय मर्षण करना चाहिये। फिर 'वियोंमि' कल्पयतु" पतिथि- ऽग एलान् भौगये विचारयन् ॥ (मन २०११४) इत्यादि मन्त्रहय पढ़के आदिरमका आविर्भाव और काश्यपका कहना है-गर्मिणीको हस्ती, अश्वादि. यो गर्भ मोषधोनाम" मन्त्र बोलके मङ्गम किया जाता है। पर्वत तथा अट्टालिकादि पर आरोहण, व्यायाम, वं गर्म धर्म की अवनति और श्रद्धाका हास हानसे प्रायः मभी। गमन, शकटका चढ़ना, शोक, रक्तमोक्षण, भय, कुक ट- वैदिक कार्य विलुप्त हो गये हैं। आजकल परिशिष्ट प्रद. भोजन, मंथन, दिवानिद्रा और रात्रिजागरण परित्याग शित नियम विलकुल नहीं चलत । करना चाहिये । स्कन्दपुराणम लिग्वा है कि गर्भिणी २ गर्भ निषक मात्र । नारी स्वामीकी आयु सद्धि करती है। इमाम उमको "गर्भाधान नमपरिचय' न ममावहमाला: । हरिद्रा, कुङ्कम, मिन्दूर, कज्जन्न, कञ्च की, ताम्ब न, मङ्गल सेविष्यते नयनमुभा ख भवनं वलाकाः। ( मेघदूत ) जनक आभरण, कंशमस्कार, चोटो बधाना पार कर गर्भाधानक्रिया-जैनांको त्रेपन क्रिीमेंमे प्रथम क्रिया। तथा कर्णभूषण छोड़ना उचित नहीं । वृहमपतिन बत- (विष विवर या जानना तो पारिपुरगया देखना चाहिये ) लाया है कि गर्भिणीको षष्ठ वा अष्टम माम विशेषत; गर्भाम्भ ( मं: पु० ) गर्भस्थ जल। आषाढ़में यात्रा न करना चाहिये । आश्वलायनकै मतमें- गर्भावक्रान्ति ( मं० स्त्री०) गर्भ स्य अवक्रान्तिः । गर्भो. गर्भवतीक स्वामोको कंशादि कर्तन, मैथन तथा तीर्थ- त्पत्ति, जीवका गर्भाशयमें प्रवेशरूपम अवतरण । यात्रा परित्याग करना उचित है। महत दीपिका और (सत्र त २१ प.) गर्भाशय ( मं० पु० ) आशेतेऽत्र ति, प्रा-शो-आधारे अच् । कालविधानमें लिखा हुआ है कि तौरकम, शवामु- गर्भस्य श्राशयः, ६ तत् । गर्भका आधारस्थान, गर्भ- गमन, नखकत न, युधादिस्थन्नको गमन, बहुत दूर जान शय्या, स्त्रियांक पटका वह स्थान जिसमें बच्चा रहता है। उहाह, उपनयन और ममुद्रम' अवगाहन कर्नमें गर्भि: गोके स्वामीका प्राय क्षय होता है। "गक शापितम'स्त्रिया गर्भागय गतम् । व कर्म जमानाति र भ वा यदि वाश भम् ॥ ( भारत १४१५५) ____ गर्भिणी जो जो भोग करना चाहती, न देनसे जिम तरह पुरुषों को अण्डकोष होता है उसी तरह गर्भ की पीड़ा उठती और अभिलाष पूर्ण हो जानये स्त्रियों को भी गर्भ कोश या गर्भाशय है। यह गर्भाशय | वह गुणवान् पुत्र प्रसव करती है। अभिलाषके अनुमार स्त्रियों को भीतरमें और पुरुषों को बाहर रहता है। इसी भोग न मिलनेसे गर्भिणी अपने आप चौंक पड़ा करती गर्भ कोशमें रजोण्ड वा गर्भाण्ड रहते हैं । जो जीव है। गर्भिणीके जिम इन्द्रियका अभिलाष पूर्ण नहीं होता जितनही अंडे देते हैं उतनेही उनके गर्भाशय बड़े होते | ___ सन्तानके भी उसी इन्द्रियमें पीड़ा उठती रहती है। राज- हैं। स्त्रियों का गर्भ कोश ११ इंच लम्बा, 1 इंच चौड़ा दर्शनका अभिलाष लगनेसे मम्तान महाभाग्यवान् और और दृष्च मोटा होता है। इस गर्भाशयम एक सूत्र धनवान् होता है । पट्ट वस्त्रादि अथवा अलङ्कारका अभिः या नाडी लगी रहती है। जिसके द्वारा बच्चा बाहर लाष उठनेसे लड़का मनोहर और अन्नद्वारप्रिय निक - निकलता है। लता है। आश्रम देखनेको जी चाहनेमे मन्तान धर्म- गर्भाष्टम ( म० पु. ) गर्भात् गर्भ कालात्, अष्टमः। गर्भ शोल और मंयतचित्त होगा। देवप्रतिमादिमें अभिलाष की अवधिसे अष्टम मास और वर्षादि । होनेसे सभासद, सर्पादि दर्शनको जी लगा रहनेसे गर्भास्पन्दन ( सं० लो० ) गर्भ स्य आस्पन्दनम्, ६-तत् ।। हिंसक, गोमांमका अभिलाष उठनमे बलिष्ठ तथा गर्भ क्षयके चिनविशेष, गर्भ को विक्वति ।। कष्टसहिष्ण', महिषमामक अभिन्लापम शोर्यान्वित, रक्त- गर्भास्राव (सं० पु० ) गर्भस्य पानावः । गर्भश्वाव देखो। लोचन और लोमश, वराहमांसको चाहसे निद्रालु तथा गर्भिणी (सं० स्त्री० ) गर्भोऽस्तासाः, इनि-डीप । गर्भ। वीर, जालमसिकी इच्छामे वनचर, मृमर अर्थात् मृग-