पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष षष्ठ भाग.djvu/२५७

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मलिका-गवन्दी २५ 10 गल्लिका (म रो०) मल्लक-टाय अत इत्वम् । गाल, माफ सुथरा होता है। स्त्रीपुरुष दोनों कानों और हाथों कपोल। में गहन पहनते हैं। स्त्रियाको लाल और काला कपड़ा गनिर ( स० पु.) एक प्रकारका रोग। कुछ ज्यादा अच्छ.) गो िहै। गल्वर्क ( स० पु० ) गलुमणिभेदम्तमा वार्को दीप्तिर्यमा। मभी गवन्दी आज्ञा... आतिथ्य, कर्मठ, मितव्ययों १ चषक, मदिरा पोनका प्याला । २मारविशिष्ट मणि। और नम हैं। परन्तु वह मने कुचले रहते हैं। पहले ३ पद्मराग मणि, लाल नामका रत्न । नमक बना करके बेचते थे, परन्तु उक्त व्यवमाय आजक "गव (हि. पु. ) एक बन्दरका नाम जो रामचन्द्र जीको बन्द हो जानसे मजदूरी और खतो करके जोविका निर्वाह सेनामें था। करते हैं। इनमें स्त्री, पुरुष, बालक-कोई अवस्थाक गवची ( म रही० ) गां भूमिमञ्चति, गो अनच किप अनुमार यथामाध्य जीविका लिये चेष्टा करनमे नों इन्द्रवारुणी, इन्द्रायण । चुकत । गवत्र (म. ली.) गां त्राति इति त्रै-ड । गोभक्ष्य पयाल गवन्दी बहुत धर्मभीरु होते हैं। देवहिजम इनको बड़ो भक्ति रहता है यह ब्राह्मणोंसे मुहूत पूछ करके गवन्दी दाक्षिणात्यवामो एक जाति । माधारणत: छप्पर शस्य कतन, गर्भाधान, विवाह आदि शुभकर्म करत काना और राजगरो करना हो इन लोगोंका पेशा है ओर ब्राह्मण को उसमें नियत रखते हैं। 'प्रोष्ठम' नामक वीजापुर जिले और उसके इलाकेके बागबाड़ी उपवि निम्नय गोके तेलङ्गो ब्राह्मण हो इनके पुरोहित है। भागमें इनकी रहायस ज्यादा है। यह कनाड़ीकी टूटी हनुमन्तदेव, तुलजा भवानी, व्यङ्गटरमण और यलमा फटी गवारू बोलीम बात चीत करते, परन्तु काम पड़ने देवीको कुलदेवता जैमा पूजत हैं । आकेट नगर के पर हिन्दो और मराठी भो बोल लेते हैं। गवन्दी देखने में उत्तर वेङ्कटगिरि और निजाम राज्य अन्तर्गत तुलजा बिलकुल कुन्बियों जैसे समझ पड़ते, कंवल देखनमें पुरको इनकी तीर्थयात्रा होती है। आश्विन माममें दश- कक ज्यादा काले और लम्ब लगते हैं। इनमें किसी हरको तुलजाभवानी देवोकै प्रोत्यथ भेड वलि दिया प्रकारका श्रेगोविभाग वा गोत्र अथवा कुलको विभि- करते हैं । यसमा देवीके प्रजा ममय निमन्त्रित जातिको व्रता नहीं। परन्तु परस्पर एक उपाधिधारी होनेसे वर खिलाया जाता है। देवमतियां प्रायः मनुष्य, वृष पौर और कन्याका बवाह रुक जाता है। वानरके आकारको बनती हैं। यह पत्थर और मट्टीमे रहनेके लायक घर बना लेते गवन्दी लोग मवरे नहा धो करके गृहदेवताकी है। खड पतवार या वैमी ही किसी चीजसे घरको छत पूजा करते हैं। जिनके गृहदेवता नहीं, वे मारुतिक छायी जाती है। अपने काम लिये गाय बकरी आदि मन्दिरमें आङ्गिक ममापन किये विना जल ग्रहना अन्तु और कुत्ते पालते और अपने बाप उनका प्रतिपालन रनसे विरत रहत हैं। पर्व आदिको यथारोति उपवास किया करते हैं। कोई काम काज करानके लिये यह प्रभृति किया जाता है। श्रीष्ठम् ब्राह्मण परम्परानुसार • नौकर नहीं रखते । दाल, रोटी और भाजी इनका माधा- दीक्षा देते हैं। इनके गुरु को ताताचार्य कहत, जो एक रण खाद्य है। पार्वणादिको अवपाक करके खाया जाता मात्र धर्मोपदेष्टा रहते हैं। उनके भरणपोषणको सबसे है। भेड़, हिरन, खरगोश, हस, मुर्गा प्रादि पालतू चन्दा लिया जाता है। गवन्दी ग्राम्य देवता या किसी चिड़िया और मछली इनकी प्यारी चीज है, दूसरे मांसको उपदेवताकी नहीं पूजत। यह अपवित्र ओर अखाद्य समझ करके नहीं छूते । भूतप्रेत, डाइन, चुड़न और भविष्यत् वाक्यमें इन्हें नशा पीने का इन्हें कुछ ज्यादा शौक है। त्यौहारके दिन बड़ा विश्वास है । औषधमे रोग शान्ति न होने पर भोझा शराब बहुत पी जाती है। मद्यके कारण प्रायः सभी ऋण- पा करके झाड़ फ क करते हैं। इससे भूतको सामा + : ग्रस्त रहते हैं । गवन्दियोंका पहनावा सीधासादा और कपड़ा देने पर वह उतर जाता है। किसी रोमीयो वता