पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष षष्ठ भाग.djvu/२६०

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गवामयन-गवाशन उनको शृङ्ग भी उठे थे। उससे यज्ञ की कोई आवश्यकता अनुष्ठेय उपमद् रहते हैं। ऐसे स्थल पर हादश दीक्षाना- न रहो, उसके ममापन करनको सम्मति हुई। उनक १० ! के पीछे कृष्णपक्षीय अष्टमीसे शुक्लपक्षको चतुर्थी तक १२ माममें फल लाभ करनमे ही यह यज्ञ दश माम माधा दिनमें हादश उपसद् शेष हो जाते और शुक्लपक्षीय हुआ है। ( ण्डमा म प ४।१।१ ) यन्त करनेवाले पशुओंमें : पञ्चमोको प्रथम अतिरात्रका अनुष्ठान लगाते हैं। इस जो फन नाम कर न मकै, कहन नग-हम लोग मंवत् प्रकारमे ३० दिनको पूर्वपक्षमें ही माम समाहा होता है। मरके अपशिष्ट और दो माम अनुष्ठान करके प्रारब्ध याग- यथाविधान हादश माम पर्यन्त याग करके कृष्णपक्षम हो का ममापन कर ग। मवत्मर यतका अनुष्ठान करनमे उमको ममापन करते ओर यज्ञस्थलमे उठते हैं। इमक उनको भी शृङ्ग उठे थे । किमीक मतम शृङ्ख अानक बाद पोछे यजमानका पशु धान्य आदि बढ़ने लगता और उस अथडाम यज्ञ करने पर फिर गिर पड़े। यस फलमे का वाक्य भी कल्याणजनक निकलता है। गवामयन उन मबको ऋतुमुलभ आहारीय द्रव्य मिला था। मालम यजक फलमे अल्पकालम हो यजकारो विपुल समृद्धि पड़ता है कि उमी ममयमे उनकै घाम खानको व्यवस्था शाली हो जाता है। (सामागा ५।१४ ) हुई। इमोमे शृङ्गटोन पशु मभी ऋतुओंमें हृष्टपुष्ट रहते गवांना (हिं. क्र. ) नष्ट करना, खोना। और विचरण किया करते हैं। किन्तु शृङ्गयुक्त महिष गवामृत ( म० क्ली० ) गोरमृमिव अवडादश: । गोदुग्ध, प्रभूप पशु शीत तथा धूपर्क प्रावल्यसे लग पड़ जाते हैं। गायका दूध । ( तामाबामगा ४ १।२) उनक हादश मास अनुशन करके गवाम्मति ( म० पु० ) गवां पति अलुकममामः। वृषभ, फल पानमे यह यन्त हादश माम माधा हुआ है । भाष्य. मॉड़, बैल । कारक मतमें-ज्योतिष्टोम तथा दशपूण मामादि यजक मिहेने व गापतिम् । ( भारत २।१६ १.) विधान स्थल में किसी प्रकारके फलका उल्ल ग्वन रहत भौ २ गोपालक, ग्वाना। ३ गोस्वामी, गोके मालिक। जिम प्रकार स्वर्ग मिन्ना करता, वैसे ही गवामयनमें भी ४ । ५ किरणपत, सूर्य और अग्नि प्रभृ'त । किमी फल का उल्लेख न रहनसे स्वर्ग लाभ ही फल ठह- ( भारत ४।२२० प.) रता है। किन्तु इमक पीके ममृद्धिप्राप्तिको कथा रहनेमे गवार ( फा० पु०) १ जो मुसलमान जाति नहीं हो, इस यज्ञका फल स्वर्ग लाभ नहीं, ममृद्धिप्राहि ही है। साधारणत: अग्नि उपामक पारमी जाति। २ पहल तैत्तिरीयक ब्राह्मणमें गवामयन यागका फल मष्ट प्रक्ष- काबुल्लअञ्चलमें गवार नामको एक जाति रहती थी। गेमें समृद्धि लाभ लिखा हुआ है। वावरक ममयमें उमको भाषा 'गवरि' कहलाती थी यह चैत्रमासीय शुक्लपक्षकी एकादशो तिथिको इस यन- जाति अव कहीं नहीं देखी जाती है। की दोक्षा लेनी पड़ती है। चैत्रमास मंवतमरकं चक्ष जैसा गवारा ( फा० वि०) १ मनभाता, अनुकूल, पमंद। सवप्रथम अवयव है इसलिये उसी में यज्ञको दीक्षाका २ सय. अंगीकार । विधान बंधा है। सभी यजामें १२ दीक्षाएं होती हैं। गवान्लोक ( मं० पु० ) जैन शास्त्रानुमार वह मिथ्याभाषण शुक्लपक्षीय एकादशोको प्रथम दोक्षा होनमे कृषणपक्षीय जो गो आदि चौपायोंक लिये किया जाय। सामी पर्यन्त द्वादश रात्रिीमें बारहो दोक्षाए पगे पड गवाल क ( मं० पु.) गवाय शब्दाय अन्नति अल-वाहुल जाती हैं कृष्णपक्षको अष्टमीको एकाष्टका कहते हैं। कात् उकञ्च । गवय, बेल इत्यादि। उममें राजकय हो सकता है। उमदिनको प्रात:काल हो गवाविक ( स० क्लो. ) गोथ अविथ । ( गवामनोनित प्रायणीय प्रभृति यज्ञक अवयवाका अनुष्ठान करना २४.११) हया: समाचार' । गोमेषका ममाहार, मवेशी और पड़ता है। सिवा इसके दूमरा भी फल है शुक्लपक्षीय भेडाका झंड । एकादशोको दीक्षा मिलनेमे मोमयाग पूर्वपक्षमें ही समाप्त गवाशन (मं० पु०) गामश्नाति अश भोजन ल्य । गोभक्षक, हा जाता है। फिर सभी यजाम दीक्षाके पीछे हादश मूची, चमार ।