पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष षष्ठ भाग.djvu/३१६

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३१४ गायगोठ-गायत्री - के० मी० एम० आई० बड़ोदेके मन्त्री बनाये गये। बालक | गौरादित्वात् डोष । अतोऽनुपसर्ग कः । पा ३।२३। यहा गया सयाजी पहले जब मामान्य ग्राम्य बालकोंके माथ खेल एव गायाः, गय स्वार्थे अण, गायान् प्राणान् त्रायते । वेद- करत, लोग नहीं ममझत थे कि उनके अदृष्ट में राजसिंहा- मासा, विजोंका उपास्य एक वैदिक मन्त्र । सन रहा। १८७५ ई० ८ नवम्बरको जब 'प्रिन्म अव | लोकिक छन्दःशास्त्रमें जम समवृत्तका प्रत्ये क चरण वेल म' ( राजकुमार ) बम्बई में उतरे, बालक गायकवाड ६ अक्षर वा स्वरवर्ण युक्त आता, गायत्री कहा जाता है। उनमे मिलने गये । फिर १८ नवम्बरको युवराजने | वेदमें ममवृत्त वा ४ चरण-जैमा कोई भी नियम नहीं, २४ बड़ोदा जा करके उनका आतिथ्य ग्रहण किया। जो लोग अक्षरवालको गायत्री कह मकते हैं। कात्यायनकृत अनु. युवराजके माथ आये , बालक गायकवाड़ के गाम्भीर्य तथा क्रमणिका और ताण्डाब्राह्मण के मतानुमार वैदिक गायत्री राजोचित व्यवहारमे आश्रर्यमें दांतों तले उङ्गली दबा | कन्दमें आठ आठ अक्षरके ३ चरण लगते हैं। इम नियम- करके रह गये । १८७७ ई० १ जनवरीको महारानी से तो अनेक वैदिक मन्त्र गायत्री कहला सकते हैं। विक ग्यिाके भारतेश्वरो उपाधि ग्रहगोपलक्षमे दिल्ली में परन्तु यहां गायत्रो शब्द योगरूढ़ है, केवल 'सन सवितु- दरबार लगा था उममें सयाजी भी जा करके उपस्थित वर " इत्यादि मन्त्र ही ममभ पडता है । यह नहीं हए । दरबारमे उन्ह 'फरजन्द ग्वाम दोलत इङ्गलिशिया' कि वास्तविक पक्षमें गायत्री छन्द का लक्षणाक्रान्त होनमे उपाधि मिन्ना था। १८७८ में यमुनाबाई को भारत हो वह गायत्री कहलाता, वरं अपन गायकी और पाठकी- मुकुट या मो० आई० ई० उपाधि दिया गया । और का त्रागा करनसे भो उक्त नाम पाता है। बृहदारण्यक सयाजी गायकवाड़ भी के० मी० एम० आई० उपाधि उपनिषद् (५।१४।४)में गायत्रो शब्दको अन्यप्रकार व्य त्पत्ति प्राहा हुए । पोके जो० मी० एम० आई. जो. मी० आई०: प्रदर्शित हुयी है । उसको देखते गाय शब्दका अर्थ प्राण ६. उपाधि भी प्राप्म हये। मयाजा दम्वा । है, प्राणरक्षा करनेवालेको गायत्रो कहते हैं। यह क्, गायगोठ (हिं. स्त्री० ) गोशाला ।। यजुः और माम तीनों वेदोंम एक हो जैसी मिलती है। मायघाट-वकशी ग्वाल-एक उत्कष्ट प्राकृतिक झीन, जो | "सतमस्तिव र य भी देवस्य धामाह। । बङ्गालमें हावड़ा जिलाको दामोदर और रूपनारायण धियो यो नः प्रचोदयात् ॥" · नदियोंके मध्य अवस्थित है। इसकी लम्बाई लगभग ७१ (ऋक् २ (२।१०, साम २६.२।१०।१, वाजसनेय ३,३५।२२।९) मील होगो । १८८४ ई में जलविभागने हावड़ा डिम गायत्रीचन्द समुदायके अक्षर गणना करनेमे मब मिन्ना करक चौबीस होने चाहिये । परन्तु दर्शित ट्रिकवोर्डसे यह झोन वार्षिक ४५००, रु० जमाबन्दी

पर ली थी।

"तत्मवितुर्वरेण्य” इत्यादि मन्त्र देखनसे तेइस मात्र गायत ( अ० वि० ) बढ़त, अधिक, अत्यन्त, ज्यादा। अक्षर वा स्वरवण निकलेंगे। एक अक्षर घट जसा गायताल ( हैं पु०) १ बन्ली में निकष्ट, निकम्मा चौपाया। जानसे वह गायत्रीकन्द लक्षणाक्रान्त नहीं होता। , २ खगब पदार्थ । इमासे उपनिषदमें “वरण्य" पद विश्लेष करक 'पर- गायत्र (20 त्रि.) गायत्रया: गायत्रोच्छन्दमः इदम-अण । गोय" जमा कल्पित हुआ और चतुविशति मख्याका गायत्रो छन्द। पूरण पड़ा है। वृहदारण्यक मतमें भी गायत्री विपाद : "मा गावचेष गायत ।- ( द १॥२१॥२) है। लौकिक छन्दको तरह ४ चरण न रखते भी २४ _गायत ष गायवोच्छन्दते ५ मन्वेष।' (मायण) अक्षर होनसे वह गायती कहलाती है। गायत्रिन् ( मं० पु० ) गायन्ते त्रायते शट, गायत् त्र-णिनि ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य यथाकालको यथानियम पालोपात् माधुः । १खदिग्वृत, वरका पेड। गायत्र में पारदर्शी आचार्य के निकट गायत्री मन्त्र में दोक्षित 'स्तोत्र' अम्त्यम्य इनि। २ उद्गाता, मामगायक । गानि त्वा गाविणोऽयन्ति। ( क११०१) होते हैं । उस समय इनका पुनर्जन्म होता और हिज गायत्री ( सं० स्त्रो०) गायन्तं वायते, गायत्-त्रा-क-ततो ."गायत पायस यमान गायवो वसतः स्मता।" (न्यास)