पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष षष्ठ भाग.djvu/३१९

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गायबो-गायन ३१० और वि वर्ण के कपिलवण चिन्ता करते हैं। इमो समस्त देवताओंको एक एक गायत्रो और उसकं जाकी प्रकारसे तु इन्द्रनीलमणि जैसा, व अग्नि तुल्य, ण निर्मन, विस्तर फन्नथ ति है। यं विद्य त् -जैमा, भ कष्णवर्ण, गो रक्तवर्ण, दे श्यामन जिम देवताके उद्देशमे वलि दिया जाता, पूजक उसी वर्ग, व शुकपण, म्य श्यामन्नवर्ण, धी कुन्दपुष्यमदृश, म देवताको गायत्रो वधा पशुके कर्णमें सनाता है । यह शकवण. हि चन्द्रसदृश, धि पीतवर्ण, गे विद्यु ताभ, यो ____एक प्रकार पशुदीक्षा है। धम्रवण, न ताकाञ्चन जैसा, नकारके दोनों विन्दुओंमें ऊपर- २ वन्दोविशेष । इमके प्रत्येक चरणमें ६ असर रहते वाला रक्तवर्ण तथा नीचेवाला कशावर्ग, प्र नोलवण, हैं। चरण में लघुगुरुभेदमे यह ६४ प्रकारका होता है। च गोरोचना जेमा पीतवर्ण, ट शुक्रवर्ण और यात् वर्ण- उममें तीन प्रकारका प्रधान है-तनमधारा, शशिवदना यको ब्रह्ममन्दिर चिन्ता किया जाता है। इसी प्रकारसे और वसुमती। यह मब लौकिक हैं । लौकिक गायत्री- गायत्री के प्रत्येक वर्ग को चिन्ता कर लेनेपर गायत्रीकी के ४ चरण होते हैं। परन्तु वदम ३ चरण ही लगते हैं। वेदमें ३ चरण होनम हो गायत्रीका नाम त्रिपदा चिन्ता करनी चाहिये। परमदेवता गायत्री मृणालके है। लोकिक छन्दक सूत्र-जैमो अतिशय मम, विदा त पुञ्जकी भांति प्रभायुक्त अक्षरवाले ४ चरणाम और वैदिक गायत्रोवन्दक ८ अत्तरवाले ३ चरणाम २४ होते मूलाधार पद्ममें मुप्त भुजगीकी तरह अवस्थिति करती हैं ब्राह्मणांको वैदिक गायत्री तान और क्षत्रिय वैश्योंको हैं। लौकिक और वैदिक गायत्रीम इतना ही प्रभद है। "पांग्रमा प्रति सस्य देवमविजम् । २ प्रणव मिला करके जपनो चाहिये । गायत्रीतन्त्रक हतार रबंधातमम ॥" ( क १।१।१) मतम तान्त्रिक लोग इष्टमन्त्रको गायत्रो पुटित करके जयते उपर्यत मन्त्र वैदिक गायत्रीकन्दका उदाहरण है। हैं। जो गायत्री भिन्न जपकी पूजा करता, शतको : जप तागडयब्राह्मण मतमें गायत्रीक अष्टाक्षर चरण होनका मे भी फनन्नाभ कर नहीं सकता । प्राणायाम करके कारण यह है कि माधानामक देवगण उपकरणमम्पब गायत्री जपनी पड़ती है। तन्त्रक मतानमार मभी ममयों यतके माथ स्वर्ग लोक पहुंचे थे । वस प्रभृति टवाने प्रथम और अवस्था भीम गायत्री जप किया जा मकता है. उस स्वर्गमाधन यज्ञक निमित्त चतुरत्तरविशिष्ट गायत्री पादि में अशु'च वा शुचि जैमी कोई व्यवस्था नहीं। गायत्री- मभी छन्दीको कहा था कि वह स्वगलोकमे मोम पार- को त्रिमन्ध्याम जपना चाहिये। जनन और मरणा- रण करन जात । कन्दों ने भी उमको अङ्गीकार किया। शौचको भी गायत्री मन ही मन स्मरण कर मकत हैं, मबमे पहले जगती कुन्द भेजा गया। वह मोम रचकों- अन्य वैदिक कार्य की तरह अशीचमें उमका निषेध नहीं मे युद्ध करके अपन ३ अक्षर खो एकासर हो लौट है। ब्राह्मण गायत्रीको छोड़नसे चगडाल, थाघ्र वा शूकर आया। फिर विष्ट भ चली, परन्तु वह भी अपना एक योनि पाता है। अक्षर खो करक ३ अक्षरविशिष्टा हो वापम हुई । गायत्रीतन्त्रका देखते कनिकालके ब्राह्मण शूद्र-जेमे अनन्तरको गायत्रीकी बारी आयो, वे जा करके कच प्राचार व्यवहार-सम्पन्न हो करके अशुद्ध बन गये हैं। प्रत प्रभृति मोमरक्षकों के पाममे जगती तथा त्रिष्टभक चार एव 'गोत्री मन्त्रको टोक्षा मिलन पर गायत्रीका प्रत्येक अक्षर ले स्वयं अष्टाक्षग बन लोट पड़ी। ३ खदिर । अक्षर १०८ वार जपना चाहिये , फिर प्रणवत्य योग कर ४ टुर्गा। ५ गगा। दी। के गायत्री जपनसे -लप्राप्ति हुआ करती है। नहीं तो गायत्रोसार ( म. प. ) गायत्रया: मारः। खदिर वृक्षका अरण्यरोदनको भावगायत्रीजपमे क्या फल मिल सकता मार, खरक पड़का गूदा है। ( गायवोतन्त्र ६ १ ० ५४ल) तन्त्रशास्त्र में गायत्रीको गायत्रा ( म० ए० ) मोमन्नताविशेष । प्रजा करनका टिच पड़तोद्यमान है। व दी। अपरा- गायन (म० वि० ) गायति गै शिल्पिनि ल्य ट । पर जपप्रणालियां सनया विधि और ब्राह्मणसर्वस्व प्रभृति १ मङ्गीतव्यवमायो, गानका व्यवसाय करनेवाला, जो गीत अबम विस्त त मावत लिखी हैं। तन्त्रक मतमें प्रायः गा कर अपनी जीविका निर्वाह करता हो । Tol. VI. 80