पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष षष्ठ भाग.djvu/३५१

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गौत ३४१ कशित अतिममहको ५ जातियां हैं-दौप्ता, आपता, गजका स्वाभाविक स्वर निवाद है। ( सगीसरतमासर) करुणा, मृद और मध्या । षड्ज स्वरको ४ श्रुतियां यथा इन्हीं सकल स्वरोंसे मकल प्रकारका राग उत्पन्न होते क्रम दोल, आयत, मृदु और मधा जातीय होती हैं । इसी हैं। पूर्व कथित स्वर फिर वादी, मवादी, विवादो और प्रकारसे ऋषभको तीन करुणा, मधया और मृदु, गन्धार- अनुवादी भी होते हैं। जिस रागमें जो स्वर बार बार को दो दोप्ता तथा आयता, मध्यमको चार दोक्षा, आयता- लगता, उसका बादी ठहरता है। रागमें वादी हो मृद एवं मध्या, पञ्चमकी चार मृदु, मध्या, आयता, सर्व प्रधान है। दूसरे स्वर इमके अनुगत रहते हैं। २ कमणा, धैवतको तीन करुणा, आयता और मध्या और स्वर जिम जिस ति पर विश्रान्ति पाते, उसके वीच निषादको २ युतियां दोध और मधया हैं। दोशमं भी बारह अथवा ८ श्रुतियां रहनेसे एक दूमरे के मादी नोवा, रोद्री, वचिका और उग्रा-४ भद पड़ते हैं। कहलाते हैं। जैम-घड जस्वर छन्दोवतो नामक चतुथ प्रायता ५ प्रकार है-कुमुद्दती, क्रोधा, प्रसारिणी, मन्दी- श्रुतिमें ममान और मधाम मार्जनी नामक त्रयोदश पनो और रोहिगी। करुणा-दयावतो, आलापिनो और अतिमें विरत होने और वन्दोवती तथा माज नीके मधा मदन्तिका भेदमे तीन प्रकारको होती है। मृट्के चार दयावती, रजनी, रतिका, रौद्री, क्रोधा, वोज का, प्रमा- भेद हैं-मन्दा, रतिका, प्रोति और क्षिति। मधा छह रिणी और प्रीति ८ यतियां रहनेमे मधाम षडजका प्रकारको कही हैं-छन्दोवती, रञ्जनी, माजनी, रतिका, मवादी है। इमो प्रकार १२ अतियोंका व्यवधान रह- ग्म्या और सोभिगो । नमे पञ्चम भी षड जका संवादी ही होता है । ऋषभका यही ७ मौलिक स्वर विक्कत हो करके १२ प्रकारके धवत, गान्धारका निषाद, मधामका षड्ज, पञ्चमका बन जाते हैं। इनमें षड् स्वर विकत होने पर च्य त और षड्ज, धैवतका ऋषभ और निषादका मवादो गान्धार अच्य त दो प्रकारका ठहरता है। इसको ४ स्वाभाविक है। (मातरमाकर ) थतियों में अन्तिम हीन होने से य त और और पूर्व श्रति गीतके अशरुपमे जो स्वर कल्पित होता, उमका हीन होनेसे अच्यु त कहत हैं। ऋषभको ३ स्वाभाविक मवादी म्वर लगानमे राग बिगड़ता है । पूर्व मवादी थतियां हैं। परन्तु षड्जको अन्तिम श्रति मिल जाने- स्थलमें उत्तर मवादोके प्रयोगमे राग का अभाव और मे चतः अति विकत ऋषभ कहलाता है। गान्धार- उत्तर मवादीकी जगह पूर्व मवादी लगानेसे जाति मधामको प्रथम श्रति ग्रहण करनेसे त्रिश्र ति विकत हानि होती है। और प्रथम और द्वितीय २ थतियां लेनमे चतुःथति निषाद और गान्धार अपर स्वरके विवादो है। परन्तु विक्कत होता है। मधाम भी षड्जकी तरह च्यत और किसो मङ्गीतविद्के मतमें वह दोनों स्वर ऋषभ और अच्य त भेटसे दो प्रकार है। पञ्चम टतीय श्रतिमें संस्थित धैवत स्वरोंके हो विवादी हैं, दूमरे किसीके भी नहीं। होनिमे त्रिभु ति विकत और यही विकत मभ्रामको फिर कोई कोई मङ्गीतवेत्ता ऋषभ और धैवतको अन्तिम श्रुति ग्रहण करनेसे चतुःश्रुति विकत ठहरता गान्धार तथा निषादका विवादी स्वर बतलाता है। है। पत्रमको अन्तिम श्रति धैवतमे प्रवेश करनसे चतुः गोतमें निर्दिष्ट स्वरके स्थान पर उमका विवादी लगाने श्रम विकत घेवत होता है। निषाद षड्जको प्रथम रागका वादित्व, अनुवादत्व और सवादित्व नष्ट होता प्रति लेनसे त्रिद - विक्कत और षड्जको अतियां है। परस्पर सवादी वा विवादी न होनेवाले एक दूसरे- ग्रहण करनेसे चर पर परमात कहलाता है। मौनिक के अनुवादो ठहरते हैं। गीतमें निर्दिष्ट वादी स्वरते मात और विकत जामका पा करके इक्कोम हो जातें स्थानमें अनुवादीको लगा मकते हैं, इससे जातिरागम पोत शास्त्रमें लिखा है कोई अनिष्ट नहीं है। (संगीतरत्नावर १४०) अषभ, छागका गान्धार, शादेवर्क मतानुमार ष ज, मध्यम और गान्धार क्रौञ्चका मधाम, कोम, भेकका घेवत और सीन देवकुल, पञ्चम पिटकुल, ऋषभ तथा धवत ऋषि- सिद्ध म Vol. VI. s . .. है। ( मौतरबा क्षण भेद हो कि मयूरका षडज, र प्रत्येक मई