पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष षष्ठ भाग.djvu/३५२

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नात कुल और निषाद असुरवंशमें उत्पन्न हुवा है। वडज, षड़ ज ग्राम बह्मा, मधामके विष्णु और गान्धार मध्यम तथा पञ्चम ब्राह्मण, ऋषभ एवं धवत क्षत्रिय, प्रामके अधिपति म देव है। हेमन्त ऋतुके पूर्वाहण निषाद तथा गान्धार व श्य और अन्तर एवं काकली शूट्र- षड़ज ग्राम, ग्रीभके मधधात मधाम ग्राम और वर्षा- वर्ण हैं। ७ मौलिक स्वर यथाक्रम-रक्त, ईषत् पोत, ऋतुके अपराहणको गान्धार ग्राम अवलम्बन करके गाना अतिपोत, शुभम, कृष्ण, पीत ता (रवर्ण और जम्बु, चाहिये। ( म गोतरवाकर 10 ) शाक, कुश, क्रौञ्च, शाल्मली, खत तथा पुष्करहोपमें क्रमानुमार ७ स्वरोका आरोहण अर्थात पर पर उत्पत्तिलाभ किये हुए हैं। सङ्गीतशास्त्रमें वेदमन्त्रको रूपसे षडज प्रभृति मातो स्वरों का उच्चारण और व्य र तरह सब स्वरोंके ऋषि, छन्द और देवताका उल्लख क्रमसे अवरोहण अर्थात पूर्व पूर्व भावमे निषाद प्रभृति मिलता है। खरों का उच्चारण मर्छा कहलाता है। वास्तविक पक्षम षड्ज तथा ऋषभ वीर, अद्ध त एवं रौद्रमें, धैवत उक्त प्रारोहण और अवरोहण युक्त स्वरमम हका नाम वीभत्स तथा भयानकमें, गान्धार एवं निषाद करुणमें म छना है। इसमें राग मछित वा वर्धित होनेसे हो और मध्यम तथा पञ्चम हास्य अथवा शृङ्गाररममें सम- म छ ना कहा जाता है । (भ. refe's, सगोतरत नाकर ॥१) धिक लगाना या बादी बनाना चाहिये। षड्जग्राममें उत्तरमन्द्रा, रजनी, उत्तरायता, शुद्ध षड्जा, (सगौरतनाकर २४५) मर्छना, तान, आति और जात्य शयुक्त स्वरसमूहका मत्सरीकता, अखक्रान्सा और अभिरुगता नामक ७ मूछ- नाएं हैं। इसी प्रकारसे मधाम ग्राममें सौवीरो, हरि- नाम ग्राम है। स्वरग्राम तीन होते हैं-षड्ज, मधाम णावा, कलोपनता, शुद्धमधा, मार्गी, पौरवो तथा ऋष्यका और गान्धार। मनुष्य लोकमें प्रथम तथा द्वितीय ग्राम अवलम्बनेसे ही गीत व्यवहार चलता है। गान्धारग्राम सात और गान्धार ग्राममें नन्दा, विशाला, सुमुग्यो,चित्रा, मनुष्योंमें नहीं देख पड़ता, केवल देवलोकमें ही रहता चित्रवतो, सुखा एवं पालापी नामक ७ मूछनाए लगती हैं। गान्धार ग्राम मनुष्य लोकमें न चलने या नवनन- है। जिस स्वरसमूहमें पचम अपनी चतुर्थ अति पर से लौकिक सङ्गीतशास्त्रमें उमको विशेष कथ 'पवस्थित अर्थात् प्रविक्कत होता, पर जग्राम कहलाता है। इसी प्रकार पञ्चम अपनी तृतीय श्रतिम विश्रान्त | का लक्षण आदि समझ नहीं सकते। (स'गीतरत्नाकर ए टोका) अर्थात् विकत पड़नेसे स्वरममूहको मधामग्राम कहते हैं मधास्थानस्थित षड जसे प्रारम्भ करके निषाद पर्यन्त सङ्गीतपणके मतानुमार स्वरसमूहके मधा धैवत वित्र ति वा अविक्षत रहनेसे षड्जग्राम और उसके यथाक्रम आरोहण और निषादमे ले करके षडज पर्यन्त पञ्चमको चतुर्थ श्रुति ग्रहण करके चतुःथति वा विकत व्य त् क्रममें अवरोहण करने पर षडज ग्रामको प्रथम होनसे मधाम ग्राम कहा जा सकता है। स्वरसमूहके म छना उत्तरमन्द्रा उत्पन्न होती है। इसी प्रकार मन्द्र 'बीचमै गान्धार ऋषमको अन्तिम तथा मधामकी पादि- स्थानस्थित निषाद प्रभृति ६ स्वरोंसे भारभ करके निमित्त रूपमें पारोहण और अवरोहण लगाने पर रजनी प्रभृति श्रुति घंवत पञ्चमको अन्तिमति और निषाद धैवत. की अन्तिमय ति तथा षड्जकी पादि श्रुति ग्रहण कर- दूसरी ६ म छनाएं बनती है। मध्यस्थानखित मध्यम के विनत होने पर गान्धारग्राम बनता है । दण्डिलके स्वरसे लगा करके यथानियम पढ़ने इसने पर मंधाम प्रामकी प्रथमा म छना सौटनकलती है। इसी मतको देखते मधाम ग्राममें पञ्चम, षड्ज ग्राममें धैवत पौर दोनों ग्रामों में मधाम स्वरकी स्थिति आवश्यक है। प्रकार षडज स्थानस्थित नाभिक अपर ६ स्वरोंसे इनके साप वा उच्चारण न होने से ग्राम बिगड़ जाता है। एक करके पारोहण टटेश में करने पर हारिणा- परन्तु पावश्यक होने पर इसको छोड़ करके दूसरे स्वरों रखा प्रभृति दूसरी निषाद में अपना करती है। जिस का लोप करनेसे भी ग्राम बना रहता है। स्वरले चढ़ना प्रारम्भ स्वरमें रुकना पड़ता (मनोरणावर.)। और जिस स्वरते उतर के जिस तक मईना पकना