पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष षष्ठ भाग.djvu/३५३

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गौत. ममाण होतो, वह स्परके संक्षिम नाम द्वारा नीचे लिखा । षड ज ग्रामको म छना। गया है । मङ्गीतशास्त्र के नियमानुसार मन्द्रस्थानीय पर १मा-ध नि स रिंग म प ध नि स रिग!! विन्द और तारस्थानीय पर जल रेखा लगाते और इसको २या-नि स रि ग म प ध नि स रिगम। छोड़ दूमरीको मधास्थानीय ठहराते हैं। वामदिककै श्याम रि ग म प ध नि स रि ग म प। प्रथम प्रारम्भ करके दक्षिण दिकर्क शेष स्वर पयन्त पह ४ी-रि ग म प ध नि म रिग म प ध। चनका आरोहण और दक्षिण दिकका स्वर आदि बना ५मी-ग म प ध नि स रि ग म प ध नि ।। करके वामक्रमसे वामके शेष स्वर तक जानेका नाम ६ष्ठी-म प ध नि स रिग म प ध नि सा अवरोह है। (मग तताका १३) ७मी-प ध नि म रि ग म प ध नि म रि। षड ग्रामको म छ ना । मधाम ग्रामको म छना। १ उत्तरमद्रा-सरि ग म प ध नि । १ली-निस रिग म प ध नि म रिग म । २ रजनी-निस रि ग म प ध । शरी-म रिग म प ध नि स रि ग म । ३ उत्तरायता-ध नि म रि ग म प । री-रि ग म प ध नि म रिग म प ध । ४थी-ग म प ध नि स रिग म प ध नि। ४ शुद्ध पड जा-धं नि स रि ग म। ५वीं-म प ध नि म रिग म प ध नि म । ५ मत्सरीक्षता-म प ध नि स रिग । हठी-प ध नि स रिग म प ध नि सरि। ६ अखकान्ता-ग म ध नि म रि। ७वों --ध निमरि ग म प ध नि स रिग। ७ अभिसह ता-रि ग म प ध नि म। आदि सङ्गीतशास्त्रप्रणेता भरतमुनिके मतमें गान या मधाम ग्रामको म छना। वाद्यक समय जिस स्थल पर कण्ठ वा हस्त कम्मित होता १ सौवीरी-म प ध नि स रिग। मूर्छना कहा जाता है। हनुमान् उसीको मूछना बत २ हारिणाखा---ग म प ध नि स रि। स्नात, जहाँ षड्जादि स्वरमे ऋषमादिक उत्थान पर विगम दिखलाते हैं। ३ कलोपनता-रि ग म प ध नि स। यह सब मूर्छनाए फिर चार प्रकारको होती - ४ शुद्ध मधा--स रिगम पनि । शुद्धा, मकाकली, सासरा और काकल्यन्तरयुत्ता । मूर्छना- ५ मार्गी --निस रिग म प ध । का जो जो स्वर विलत वा पविकत उता हुवा है, टोक वैसा ही रहमेसे शह मूर्छना कहते हैं। निषादस्वर पौरवो-ध नि स रिगमप। षड्जकी २ अतियां ले करके चतुःश्रुति होने पर काकली कहलाता और जिस मुर्छनामें वह पाता उसकी सका- ७वष्यका-पधमि स रिग म। मधाम ग्रामको ४थ, ५म, ६ष्ठ, भौर ७ मूळ नाके | कली कहा जाता है। गान्धारस्वर मधामको २ वतियां साथ षडज ग्रामको १म, २य, ३य और ४थ मनाका | ग्रहण करके चतुःश्रुति होनेमे अन्तर बनता और उसके आपाततः कोई भेद नहीं जैसा समझ पडता है। लगाये जानसे मुर्छनाका नाम मानसरा पड़ता है। कोई परन्तु वास्तविक पक्ष पर षाज़ ग्रामको पाँचवीं चतुः । मूर्छना अन्तर और काकली लगनेसे काकस्यन्तरयुना हो अति और मधाम प्रामकी पांचवीं त्रिवति होनेसे ! जाती है। यह ५६ प्रकारको मूर्छना प्रथमादि स्वरके इनका परस्पर विलक्षण भेद होता है। मतङ्ग और | होता है और भारम्भ वेदसे फिर सात प्रकारको बनती है। अतएष मन्दिकेश्वरके मतानुसार प्रत्येक मनामें १२ स्वर में एक सब मिला करके ३८.२ प्रकारको (७४२१४,१४४४ (मात गौ मन्दिर ) ६ सिम ईनाका पाकार नाम ALX७८ ३८२) मूर्छना है। (सनोमा ) शिवा-जेसा बतलाते है- 'यक्ष, राक्षस, नारद, ब्रह्मााँ सर्प, पश्चिनीमार पौर