पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष षष्ठ भाग.djvu/३६०

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३५८ गोता को गभा सृप्तिकर सुखमाधनाके लिये पुण्यादि कर्म अर्थात् मकाम करके वह बिश्व-दास्य व्रतधारी, दयाशोल, सत्यपरायण, अनुष्ठान करनेसे वैसी मिडि कहां मिलती, इमसे मुक्ति- बालवत् ऋजुस्वभावविशिष्ट, मटोवतात्मा, मृदुभावापत्र लाभमें वाधा प.ती और नानाविध दुर्गति नगी रहती इत्यादि सब उज्ज्वल तथा महोत्कष्ट गुणों से भूषित और है। किमी अणक सूक्ष्मानुसूक्ष्म अंशसे अति विशाल सर्व प्रकार क्षुद्र अधम निक्लष्ट भावमे अपरिचित हो जाता ब्रह्मागड और उमको ममष्टि तक जो अनन्ताकाशी अनंत- है। विषय कामनाएं सुबुडिको मलिन करतो हैं । यही कानावधि ममुदवालुकावत् व्याप्त हो रहा है, मभी एक | कामनाएं ईश्वरनिष्ठा सुतरां शान्ति और मुक्तिमें बाधा दूमर पर स्व स्व धर्मानुयायिक कार्य करता है। मनुष्य- डालनेवाली हैं। ज्ञान तथा बुद्धिकौशल और अभ्याम- च्य तिमे यावजीवन समस्त जगत उम पर अपना बलमे कामना न दवन पर सर्वनाशकारिणी हो जातो कार्य देवाता और यह कार्यफन यावज्जोवन चला जाता है। विश्वशृङ्खलकै भिन्न भिन्न पर्वस्वरूप जो एक एक है। अपना अपना नया कार्य गत फल इन्नोक और पृथक् वस्तु पड़ता, उममें मनुष्य भो ठहरता है। अन्यान्य जन्मजन्मान्तरमें भोग करना पड़ता है । सुतरां कम। वस्तु जैसे अपने अपने प्राकृतिक नियम और गढ़ भावमे बन्धमुक्त हो जीवात्माका परमात्मामें लय होना ( निर्वाण- | परम्परको अनुकूलता करत, मनुष्य तनियमवशतापन होत प्राशि ) अनर्वचनीय दोघकालव्यापो जटिल और दुय भी चित्शक्तिको अपेक्षाकृत स्पा ति रहनसे अपने बल पर व्यापार है। योग नामक कर्म कौशल इम निर्वाणप्राप्ति स्वशरीर और मनको अन्य प्रकार बदल मरते हैं। का माधक है। योगको नाना पन्थाएं नाना ग्रन्थों में सा, इमोम उनके पत्समें उक्त प्रकारका कोई विवत हुई हैं। किन्तु आहारादिका नियम और अन्यान्य कार्य मानो स्वतन्त्रभावसे किया जा मकता है। परन्तु विविध चेष्टाओं द्वारा पिगड विशडकारो मंयमन, मह रुके वास्तविक वह जहां तक बुद्धिमायोत्तीर्ण होमकत, बडि- निकट तन्वापदेशग्रहण और अन्त में भक्त्युद्दोवनसे शक्तिक नियमानुसार कार्य करते हैं और जब माया पात्मज्ञान लाभ करके तन्मय हो जाना मदयोगका मुख्य बुद्धिको महाजड़ोभूत बना डालतो. इम मायावलमे उक्त उद्देश्य है। ईश्वरको यद्यपि लोग नाना प्रकारमे भजन जजीरकी कडी ( मानव ) अपना तथा अन्यान्य शृङ्गल करते और मर्वएकारम कार्यानुरूप सिद्धि पाते रहते, पाका प्रतिकूलाचरण लगाती है। रीमा हान पर भावना तथापि आत्मज्ञानानुशोलनर्म' को जानेवाली भजनाको हो मायाके प्रतिनिधि जेमा कार्य करती है। उक्त अन- हो प्रकष्ट समझते हैं। उम ज्ञानका चरम फल यहाँ कूलता ही पुण्य और प्रतिकूलता पाप है। इहलोक वा ढोपन्नब्धि है कि सर्वभूतम एकमात्र ईश्वर और मर्व परलोक में विषयभोग कामना ही पापका वीज ठहरती भत ईश्वरमें अवस्थित है। सुतरां माधक मिड होने | है। यह दुष्ण रण अग्निवत् कामना शुद्ध शरार और शुद्ध पर अपने आपको ईश्वरमे भिन्न समझ नहीं सकता। चित्तम कवल ईश्वरके ध्यानसे दमित होतो है। तब इसो ममय 'मोऽह' ( वह मैं हू ), 'अहं सः' (वह मैं ), जीवभूत चिदंश चित् मध्य (ईश्वर)में लगनेसे इस माया- 'ब्रह्ममय जगत्' ( मंमार ब्रह्मरूप है) भाव उसका दृढ की प्रतिनिधि कामना एककालको निर्वापिस हो जाती. निश्चय हो जाता है। वह ज्ञानचक्षुमे जगत् एवं मंसार मनुष्य अपना और दूमरेका कल्याण साधन करता है। सष्टि दर्शन कर नहीं सकता । महाकविका विशाल इन्द्रिय, मन और बुद्धि कामनाका आधार है । मुतरां भावानुभाव अतिक्रम और उमके शोभादर्शनम महावि इन सबके दमनका कौशल ममझना भी एक महत् कार्य जानशा र विदोको तोक्षण बुद्धिको अपेक्षा भी सूक्ष्मवुद्धि है। यह गुरुतत्त्वविशेष गुरूपदिष्ट ज्ञानोको छोड़ कर से मनन्सकौशलका निगूढ़ तत्त्व भेद करके साधक सदा के किसी दूसरेका बोधगम्य नी-ममुथकी पापपुण्य मन्दसागरमें डूबा रहता, उसका चित्त कभी भी किसी विषयमें क्या स्वतन्त्रता और क्या परतन्त्रता है ! इस पकारसे विक्षुब्ध नहीं पड़ता और सर्वदा निर्भय लगता | विषयमें हठात् प्रज्ञानियों के बुद्धिभेदको चेष्टा करनेसे है। अपनी उपमा, सबका सुख दुःख समभावसे देख । उनका विस्तर अनिष्टोत्पादन सम्भव है। उनके लिये