पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष षष्ठ भाग.djvu/३८१

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गुड चोष्ठत-गुड च्यादिवाथ ३७५ आमके वृक्षम हो वह ज्यादा बढ़ती है। गुर्च दो प्रकार लेना चाहिये। इसमें शुलफा, हर, त्रिकटु, गुर्च, मोथा, को है, एकको काटनेसे उसके बोचमें चक्राकार चिह्न यन अजवायन, हलदी, दारहलदी, कुट, धनिया, पद्म- झलकता है। इसमें वैसा नहीं होता । चक्राकार | काष्ठ, विडङ्ग, तेजपत्र, वच तथा जटामांसो चार चार चियुक्त लता पद्मगुड ची भी कहलाती है। यह अपेक्षा- तोले ओर ८ तोला लालचन्दन डालनेसे वृहत् गुड ची. कत कुछ मोटो राती और चालीस पचास हाथ बढ़ती | तैल तयार होता है। है। इसकी गांठसे लम्ब लबे रेशे निकलते हैं। नीमः | दूमरा ग चोतेल बनाने को प्रणाली यह है-१६ श० की गुतं सबसे अच्छो ममझी जाती है। तिलतेल, ६४ श० टुग्ध और ६४ श० जनमें १२॥ श० गुचं __ युरोपीय चिकित्सकों के मतमें वह बलकर, मृत्रकर उबाल करके १६ श० पानी रहनेसे उतारा जाता है। और अल्प ज्वरन है। टयाट, कांबल आदि डाकरोंका | इसमें मुलहटी, मञ्जिष्ठा, ऋडि ( अभावमें बन्ला ), वृद्धि कहना है कि मविराम ज्वरमें गुरची बड़ा उपकार ( न मिलनेमे गोरक्ष-चाफुल्य ), मेदा ( न रहनसे अख- करती है । परन्तु डा० ओसफर्नसी वह बात नहीं मानते। गन्धा ), महामेटा ( अभावमें अनन्ता ), ग च, ऋषभक उनके मतानुमार गु के काढ़े का विशेष गुण यहो है ! ( न मिलने पर वंशरोचना ), काकोलो, क्षोरकाकोली, क वर शत्यनिवारक होते भी उष्ण नहीं। पुराने उप जोवन्ती, कुठ, इलायची, अग रु, ट्राक्षा, जटामांमो, दंश रोगमें यह मालसे की तरह काम पाती है। ज्वर | पद्मनखी, शटो, रेणुक, विकात, जटा, मोठ, पीपल, मिर्च आदिके पीछे शरीर दुर्बल पड़ जाने पर इसको खानसे | शुलफा, श्यामालता, अनन्तमूल, ग डत्वक, तेजपत्र, चव्य, क्षुधा, जीर्ण और बलवृद्धि होती है। बराहक्रान्ता, भूम्यामलको, शालपर्णी, तगरपाटुका, नाग ग ड चीत ( म० ली० ) तविशेष, गुर्चका घो। १२॥ श्वर, पद्मकाष्ठ, मौगन्धिक और रक्तचन्दन दो दो तोला शरावक ग च ४ श० गायके घी और ६४ श० पानीमें डाल खूब उवालते हैं। जब १६ श० जल घट आता, १ श० यह तेल लगाने वातरक्त रोग मिटता है। गर्चका वर्ण उममें डाल दिया जाता है। इसीका नाम गुड चीपत्र (स क्लो०) गुड चोका पत्र, गर्चको पत्तो। मरचीचत है। यह वात-रक्तके लिये बहुत उपकारी इमका शाक बनता है। गण--आग्न य, सर्व ज्वरहर, होता है। लघु, कटु, कषाय, तिक्त. स्वादुपाक, रमायन, वस्थ, उष्ण, आमवातका गुड़ चौत इस प्रकार बनता है--४, मंग्राही पोर तृष्णा, प्रमेह, दाह, कामला, कुष्ठ तथा शरावक गव्यवृत और ६४ श• जलमें ६४ पल गुड ची | पाण्डन है। (भावप्रकाश ) डाल करके खुब उबालते और १६ श० पानी बचने पर गुड़ चोसत्व ( स० ली० ) ग उ.चीसार, गुर्चका सत । उतार करके उसमें १ श० शुण्ठीचर्ण मिलाते हैं। गुड़ यादि ( म० पु० ) गुए.ची आदिय स्य, बहुवो। गरचीतन ( स० क्ली० ) लविशेष, गर्चका तेल । | वैद्यकशास्त्रोक्त एक गण । गुइची, निम, धनियां, स्वल्प गड ची तैल इस तरह बनता है-४ शरावक तिल , पद्मका और चन्दन इन मभोंको गुड. च्यादि कहते हैं। सैल और ६४ श० जलमें १०० पल गुर्च उबाल करके १६ इसका गुणा-शिक्का, अरुचि, इद्दि, पिपामा और दाह- शरावक पानी बचने पर उतारते फिर उसमें १०० पल | नाशक है। गड ची चूर्ण मलाते है। गुड़ च्यादिकषाय ( सं० पु० ) पाचनविशेष । गुडची, मध्यम यथा-४ श० सिलतेल, १६ श० गुड़ चौक्वाथ | प्रातच, धनियां, शूठ, बिल्वमुम्ता और वाला इन और ४ श. टुग्ध यथाविधि पाक करनेसे मधाम गुड़ चौ. समस्त द्वारा प्रस्तुत पाचनको गुड़ थादिक्रषाय कहते हैं। तेल प्रस्तुत शेता है। इस पाखनके सेवनमे ज्वरातिसार, हिका, अरुचि, सहि, वृहत् यथा-८ श. तिलतिल और ६४,१० जलमें १०० पिपासा और गात्रदाह नष्ट होते हैं। पल गुप ची डाल करके १६ श० पानी बचस क्वाथ उतार गुड च्यादिक्वाथ ( सं० पु. ) पाचनविशेष। भावप्रकाश-