पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष षष्ठ भाग.djvu/३९१

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गुणवतो-गुणवक्ष गुणवती (स'. स्त्रो० ) १ एक अप्सरा । २ यदुषशीय गुणवाद ( सं० पु० ) गुणस्य वादः, ६ तत्। मीमांसाम सुनाभकी एक दौहित्री। ३ गायत्रीस्वरूपा एक महा. अर्थ वादविशेष । मीमांसावासिक-प्रणता कुमारलके दवी। ४ गुणवाली, जिसमें कुछ गुण हो। मतसे अर्थ वाद तीन तरहका है, गुणवाद, अनुवाद और गुणवतीवति (सं० स्त्री० ) औषधविशेष, एक दवा। भूतार्थ वाद। जहां विशेषण और विशेष्यके समानाधि- धनक, लोध्र, सिन्दूर, अतिविषा, हलदी, बहेड़ा, कम्पिः करण पर अन्वय करनेसे ठीक अथ सिद्ध नहीं होता है, नक, श्रीवास तथा गुग्ग लु बराबर बराबर धी और तेलसे वहां विशेषणका कुछ दूसरा अर्थ मान लेते हैं उसे अज की तरह रगड लेते हैं। फिर इस पिगड़को तुल्य मोम कथन वा गुणवाद कहते हैं। यथा जयमान: प्रस्तरः। इस बाल करके धीमी आंच में पकाया जाता है। सब चीजें स्थान पर जयमान विशेष्य और प्रस्तर विशेषण है। एकमें मिल जाने पर गुणवतीवनि प्रस्तुत होती है। यह प्रस्तर शब्दका अर्थ कुशमुष्टि है। यहाँ विशेषण और व्रणरोगमें बहुत फायदामन्द है । (रसरबावर) विशष्यका अभेद अन्वय किया नहीं जा मकता, मी गुणवत्तरा (म० स्त्री०) जीवन्तीशाक । लिये यहाँ प्रस्तर शब्दका अर्थ प्रस्तरविशिष्ट अर्थात् कुस गुणवत्ता ( स. स्त्री० ) गुणवतो भाष: गुणवत्-तल। मुष्टधारी कर लिया गया है। पर्थवाद देखो। गुण धारण करनेवाली स्त्री। गुणवान् ब्राह्मणीदेवीभक्त माण्डव्य मुनि वशीय एक गुणवन्तगढ़ - एक पहाड़ और पहाड़ी किल्ला । यह मलय- राजा, वैतालकके पुत्र। (सं० त्रि०) २ गुणवाला, मे मह्याट्रि पर्वतके दक्षिणपूर्व तक फेला ओर मताग गणी।। जिलेके पाटन नगरसे मोल दक्षिणपश्चिम बमा है गणविजयगणि-एक जैन ग्रंथकार, प्रमोदमाणिका लोग उसे मोडगिरि भी कहते है। किन्ला कोई १००० शिष्य और जयसोमसरिक शिष्य। इन्होंने खण्डप्रशस्ति- फुट ऊ च पर्वत पर है। वह बहुत टूट फूट गया है। टोका, विशेषार्थबोधिका नामक रघुवंशको टीका एवं इमोसे दक्षिण-पूर्व को पर्वतके नीचे गांव है। यह निरू. दमयन्तीकथाटोका प्रणयन की हैं। पण किया जा नहीं सकता, किम समय वह दुर्ग निर्मित गुणविध (सं० त्रि०) गुणस्य विधा इव विधा यस्य, बहुव्रीग हुआ। ई०१८वीं शताब्दीको पन्यक प्रतिनिधिका पक्ष गुणतल्य । ले करके गुणवन्तगढ़के लोग गवनमेण्टमे बिगड़े थे। गणविधि ( स० पु. ) गुणस्य अङ्गस्य विधिः, ६-तत् । उमो समय पेशवान लोगीको रक्षाके लिये किलेमें फौज मोमामाम वह विधि जिसमें ग ण कर्म का विधान हो। रखी। ८१८ ई०को जब महाराष्ट्र युद्ध होता था, यह जैसे 'टना जहोति' दधिसे अग्निहोत्र यन्न करना दग विना लर्ड भिर्ड अजीको मिल गया। चाहिये। अग्निहोत्र करनेका विधिवाक्य दूसरा है। गुणवत्त न ( म० क्लो० ) गुणे वतन, ७-तत् । गुणवृत्ति, अतः उसी अग्निहोत्र अन्तर्गत जो पाहुतिका विधान है गुणका व्यवसाय । उमको विधि इस वाक्यमें है। गुणवर्सिन (सवि.) गुण वर्तते वृत्-णिनि । गुण- गणविशेष (म. पु०) गणस्य विशेष: ६ तत्। एक वृत्ति अवलम्बन करनेवाला । प्रकारका गुण। गुणवर्मन् ( म० पु० ) १ तेजस्वतीके पिता। तेत्रखतौ देखो। गणविष्ा ( सं० पु. ) एक वैदिक पण्डित, दामुकके पुत्र । २एक कर्णाटक देशवासी जैन ग्रंथकार। इन्होंने पुष्य इन्होंने छान्दोग्यमन्त्रभाष्य नामक सामवेदीय सन्ध्या दन्तपुराण नामक एक जिनचरित्रकी रचना की है। और दशकर्म-पतिको टोका प्रणयन को हैं। टोका ३ इस नामके और एक ग्रंथकारका पता चलता है, जो अतिसरल भाषामें लिखी गई है । वर्तमान समय के सभी जैन कवि थे। विहान् पुरुष उक्त टीकाका आदर करते हैं। रघुनन्दन गुणवाचक (सं० वि०) गुणस्य वाचकः, ६.सत्। जो प्रभृति नव्यस्मात्तं गणोंने इनका मत उडत किया है। गुणको प्रगट करे। | गुणवृक्ष ( स० पु. ) गुणानां नौकाकर्ष करन नां Vol. VI. 98