पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष षष्ठ भाग.djvu/३९३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

गुणस्थान ३८१ होते हैं। इसके बाद के ५वें लगाकर १२वें तक पाठ उदयमे मंयम भावके हो जानेसे मनुष्य को वैराग्य प्राता गुणस्थान चारित्रमोहनीय कर्म के निमित्तसे तथा १३वां है और वह उस वैराग्यके कारण समस्त परिग्रहको और १४वों ये दो गुणस्थान योगोंके निमित्त होते छोड़ कर खुद दिगम्बर ( नग्न ) मुनि हो जाता है। मुनिक होनकै उपरान्त उस जोवर्क सम्यकरूप जो परि- १ मियात्व गुण स्थान-मिथ्यात्वप्रकृतिके उदयसे अतः णामो को अवस्था है, उसको प्रमत्तविरत गुणस्थान कहते स्वार्थडानरूप आत्माके परिणामविशषको मिथ्यात्व हैं। छठे गुणस्थानसे लगाकर १४वे ग णस्थान तकके गुणस्थान कहते हैं। इस गुणस्थानमें रहनेवाला जीव परिणाम दिगम्बर मुनिक ही होते हैं, अन्य के नहीं । विपरीत श्रद्धान करता है और मच्च धर्म की तरफ चामनविरत गप स्थान--संज्वलन और नोकषायक मन्द उमको रुचि नहीं होती। जैसे पित्तज्वरवाले रोगीको उदयसे प्रमाद ( आलम ) रहित मयमभावका नाम अप्र- दूध, मलाई, न्नडड आदि मिष्ट पदार्थ भी कड़ वे लगत मतविरत गुणस्थान है। हैं। उसी प्रकार इम श्रेमा) के जोवको भी ममीचीन पूर्वकरण ग य स्थान-जित करण ( परिणाम )में धम अच्छा नहीं लगता। उत्तरोत्तर अपूर्व हो अपूर्व परिणाम होत जाय' अर्थात् मामादन गुस्थान - प्रथमोपसम्यक्त्व के ममय अधिक भिवसमयवर्ती जीवोंक परिणाम सदा विसदृश हो हो से अधिक प्रावली और कमसे कम १ ममय बाकी रहे और एक समयवर्ती जोवों के परिणाम महश भी हो उस ममय किमी एक अनन्तानुबन्धी कषायके उदयमे और विमदृश भो हो उमको अपूर्व करण कहते हैं। और सम्यनके नाश हो जानेमे जीवके भावोंकी जो अवस्था यही पाठवा गुणस्थान है। होती है, उपकीमामादन गुणस्थान कहते हैं। अनियतिकरण र प स्थान--जिस करण (परिणाम) में ___३ मित्र गुणस्थ'न-सम्यकत्व और मिथ्यात्व इन दोनों भिन्न पमयवर्ती जोवों के परिणाम विमहश हो हों और प्रलतियों के उदयसे जोवके जो डमाडोल परिणाम होत एक ममयवर्ती जोवा के परिणाम मदृश हो हो उसको हैं। उम अवस्थाका नाम मिश्रगुगस्थान है। अनिवृत्तिकरण कहते हैं। यही नवमां गुगस्थान है। चविगतमम्यग्दष्टि गुणस्थान-दर्श मोहनीयको तीन और इन तीनों करणोंके परिणाम प्रतिसमय अनन्तगुणी अनन्तानुबन्धीको चार इन मात प्रवतियोंके उपशम वा विशुद्धता लिये हाते हैं। सय अथवा क्षयोपशममे और अप्रत्याख्य'नावरण कध, १. म. मा माप गर गुणस्थान-अत्यन्त सूक्ष्म अवस्थाको मान, माथा और लोभके उदयमे व्रतरहित सम्यवधारी पाल लोभ कषाय उदयको अनुभव करनेवाले जीव जीवके अविरत सम्यग्द,ष्टि नामक ४र्थ गुणस्थान (मुनि ) के परिणामको अवस्थाका नाम सूक्ष्मसाम्प होता है। राय गुणस्थान है। शिविरम गण स्थान-जीवके प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, ११ उपयातमोर गुरस्थान -चारित्रमोहनोयको २१ प्रक- माया और लोभके उदयसे यद्यपि संयम भाव नहीं होता; सियों के उपशेम होने पर यथाख्यात चारित्रको धारण तथापि अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया और लोभ करनेवाले मुनिक परिणामों को स्थिति को उपशान्तमोह के उपशमसे श्रावकव्रतरूप देशचारित्र होता है। इसी गुणस्थान कहते हैं। इस गुणस्थानका काल ममाप्त होने को देशघिरत गुणास्थान कहते हैं। पाँचवें छठे आदि पर जीव मोहनीयके उदयसे नीचेके छठे गुणस्थान तक अपरके गुणस्थानों में सम्यग्दर्शन तथा उसका अविनाभावो उतर पाता है, फिर क्षपक श्रेणीका अवलम्बन कर बडी सम्बम जान अवश्य होता है। इनके विना पाँचवें छठे कठिनतासे १२वें गुणस्थानमें पहुंचता है। पादि गुणस्थान नहीं होते। परिग्रह सहित एहस्यों वा चोपमोर गुषस्थान-मोहनीय कर्म के प्रत्यन्त क्षय श्रापकोंके इससे जचे परिमाण नहीं होते। . होममे स्फटिक पात्रमें स्थित जलको तरह अत्यन्त निर्मल प्रमतरस ग स्थान-संज्वलन और नोकषायक तीव्र अविनाशी यथाख्यात चारित्रके धारक मनिके परिणामों-