पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष षष्ठ भाग.djvu/३९७

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गुणोमतव्यङ्गा-गुण्ट पल्लो १६१ पुगीभूतव्यङ्गय ( म० लो. ) गुणीभूतं अप्रधानीभूतं व्यङ्ग | छोड़ करके गुणीभूतव्यग्य के और भी कई भेट निरूपण यत्र, बहुव्री०। काव्यविशेष, किमी किस्म की शायरी।। किये हैं। ( सादिसप'का ४ प.) ___ आलङ्कारिकों के मतमें रसात्मक वाक्य को काश्य कहते | गणेश्वर ( स० पु० ) गुण रोखर: गुणानामीश्वरो वा । है। यह काव्य प्रधानत: दो भागर्मि बंटा हुआ है-ध्वनि १ चित्रकूट पव त । २ तीनों गुगा पर प्रभत्व रखनेवाला, और गुणीभूतव्यङ्गय । काव्य देखो। परमेश्वर, ईश्वर । (त्रि०) ३ गुण के अधिपति । ___पान्तङ्कारिक शब्दकी तीन शक्तियां मानते हैं। यथा- गुणोज्वला ( म० खी० ) क्षुद्र तयूथिका, छोटी मफेद अभिधा, लक्षण और व्यञ्जना। शब्दको अभिधा शतसे | जुह । निकलनेवाला वाच्य ओर व्यञ्जनाका अर्थ व्यङ्गय कहलाता गुणोत्कर्ष (स० पु०) गुग्णस्य उत्कर्ष ६-तत् । गुणातिशय, है। गाना देवा । बहुत गुण। गुणीभूतव्यङ्गय काव्य वही है, जिसमें व्यङ्गयार्थ वाच्यार्थ गुणोत्कीर्तन (सं० ली. ) गुणानामुत्कीर्तन कथन । से न्य न वा ममान लगे । यह गुणीभूतव्यङ्गय आठ | नायक या नायिकाका प्रशसादि कथन । प्रकारका है-१ इतराङ्ग, २ काक्वाक्षिा, ३वाच्यमियङ्ग, | गुणोपेत ( मं० त्रि०) १ गुण, गुणयुक्त, जिसमें गुण हो । ४ मन्दिग्धप्राधान्य, ५ तुल्यप्राधान्य, ६ अस्फुट, ७ अगूढ़ | २ किमी कलामें निपुण। और.८ व्यङ्गयासुन्दर । गुण्ट नाल-मन्द्राज प्रान्तर्क करनन्न जिलेका एक गांव । व्यङ्गय किसी एक रसका वाच्य और अङ्ग होनेसे इत यह नन्द्यालसे १५ मील दक्षिण-पश्चिम पड़ता है । इस राङ्ग गुणीभूतव्यसा कर लाता है। (साहित्यदर्प ५५नि.) स्थानमें विजयनगरराज मदाशिवके राजत्व ममयको काव्यप्रकाशकारने उमका नाम अपराग लिखा है। । रामराजवेङ्कटाद्रि देवकै प्रादेशसे १४६८ शकका उत्कीर्ण (कावाम०५१ कारि.) एक शिलालिपि है। निम स्थल पर वाक्यार्थ काकु द्वारा प्राक्षिणा होता, गुण्ट पल्ली-मन्द्राज प्रान्तक कृष्णा जिले में इल्ल र तालुकका काकाक्षिा गुणीभूतव्यग्य पड़ता है। एक गांव यह अक्षा० १० उ० और देशा० ८१८ पू०में व्ययार्थ को वाच्यार्थमि का हेतु होनेसे वाच्य इल्ल र शहरसे २४ मोल उत्तर पड़ता है। नोकम ख्या सिध्यङ्ग कहेंगे। प्रायः १०८२ है। कहते हैं, पहले वहां जैनपुरम् नामक ___ो प्रस्तावमें उपयोगी और वर्णनीय दिखलाता, कोई नगर था । इस गांवकी पूर्व दिक्को पर्व तमें एक प्रधान जैसा माना जाता है। किन्तु व्यंग्यार्थ और सुन्दर गुहामन्दिर है। मन्दिरका मध्य भाग गोल, छज्ज बाच्यार्थ दोनों प्रधान लगने अर्थात् उनमें कोई प्रधान महराबदार और भोतरको ८ हाथ चौकोर तथा २ हाथ जैसा ठहर न मकनेसे मन्दिग्धप्राधान्य कहते हैं। ऊचो एक प्रस्तरमय वेदी है। उस पर २ हाथ ८ घाच्याथ और व्यग्यार्थ दोनों ही प्रधान वा प्रकत | अंगुल ऊंचा गुम्बज और इमर्क ऊपर लिङ्गमूर्ति देखते रहर्नमे तुल्यप्राधान्य होता है। हैं। मन्दिरके उभय पार्ख को कोई २०० हाथ दूर तक अस्फुट व्यग्यार्थका नाम अस्फुटगुणीभूतव्यंग्य है। पहाड तोड़ कर दोवार और घर वगैरह बनाये गये जहाँ वाच्यार्थ की भांति व्यग्यार्थ सहजम हो बोध हैं। दालान ८० हाथ लम्ब और १२ हाथ चाडं हैं। गम्य हो जाता, अगूढगु गोभूतव्यग्य आता है। एक दालानमै छोटो गुहा देख पड़ती है। कहते हैं कि व्यग्यार्थ से वाच्यार्थ का चमत्कार अधिक रहने पर | पूर्व कालको महादेवके नानार्थ उमी गुहासे जल जाया व्यग्यासुन्दर होता है। करता था। यहां प्रति वत्सर शिवरात्रि के समय बड़ा दीपक और तुल्ययोगिता प्रभृति स्थलों पर जो उपमा उत्सव होता है। पादि अलङ्कार व्यग्य लगते, ध्यनिकारादिक मतमें उन ___ आजकल मन्दिरमें ब्राह्मण्य धर्मका प्रभाव रहते भी को भी गुणीभूतव्यग्य कहते हैं। पालकारिकोंने इसको | कोई सन्देह नहीं कि पूर्व कालको वहां बौद्ध सङ्काराम