पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष षष्ठ भाग.djvu/४२०

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४१८ ग मोक्ता सवापिनोक्त अतः पौनरत्य" एमा पाठ निकला। अधायन कराने लगे । एक दिन शास्त्रोपदेशके समय उक्त अध्यापक महाशय अनेक चेष्टा करके भी इसका कोई मङ्गत बालमने अपने पियों को पुत्र कह कर संबोधन किया, अर्थ न लगा सके । इमका तो अर्थ एमा होता है कि- जिमसे उनके हृदय पर बड़ी चोट पहंची। आमिर यहां भी नहीं कहा गया, वहां भी नहीं कहा गया, अत: अनेक वादानुवादके उपरान्त सबके सब देवमभामै उप पौनरुत्य प्रा । परन्तु यह अर्थ बिल्क ल ही अमङ्गत था। स्थित है, ए और देवोंमे इम बातको शिकायत को। छात्र और अध्यापक दोनोंने मिलकर बहुत कोशिश की, समस्त देवताओंने विचार कर उत्तर दिया कि, 'इसमें मगर इसका कुछ सङ्गत अर्थ न निकाल मकै इपसे कुछ दोष नहीं ; क्यों कि मूर्व व्यक्ति वृद्ध होने पर मी अध्यापक अत्यन्त दुःखित हए और चतुष्याठीसे निकल घने बालक हैं और जो ज्ञानोपदेष्टा हैं, वह बालक होने पर जङ्गलमें जा कर उसका अर्थ विचारने नगे । प्रभाकरने भो पिटवत् पूजनोय हैं ।' (मन २०१५-१५३) अपनी प्रतिभाकै बलमे इस पंक्तिका अर्थ लगाने पर मनुका मत है कि, गुरुके पास हमेशा हीन दशामें भो उम ममय-गुरुजी अपना अपमान ममझ कर बेठना चाहिये। गुरुके उठनसे पहले उठना और मोनके दुःखित हॉग-इम भयमे कुछ नहीं कहा । पोछ उम। बाद मोना, यह शिषाका परम कर्तव्य है। मोत हए पुस्तकमें उन्होंन 'तुना' और 'अपिना' एमा एक पद कर वा बैठ कर, भोजन करते हुए अथवा दूर खड़ हो कर वा दिया। रममे उस पंक्तिका यह अथ हा कि, यहां तु । दूमरो तरफ मुंह करके गुरुको आज्ञा ग्रहगा या उनके शब्द हारा कहा और वहां भी अपि शब्द हारा कहा गया माथ मम्भाषण नहीं करना चाहिये। गुरु यदि आसन है। इसलिये पौनरुत्य होता है। अध्यापक महाशय पर बैठ कर कुछ पादेश दें, तो शिषाको वाहिये कि, वह गभोर गर्व षणा करके भी कुछ निर्णय न कर मक और खड़ा हो कर उनकी आज्ञाको ग्रहण करें। परोक्ष भी चतुष्पाठीको लौट आये यहां उन्होंने पुस्तक निकाल कर गुरुका नाम नहीं लेना चाहिये। शिष्य देखा। देखी, तो उममें पदच्छेद किया ह.आ पाया । बहत हो । ५ आचाय आदि ग्यारह पूजनीय व्यक्तियों को गम सन्तुष्ट हुए, पूछने पर उन्हें मालुम हुअा कि, वह प्रभा- कहते हैं। देवलमें लिखा है कि, शास्त्रोपदेष्टा, पिता, कर को हो करामात है । अधधापकन प्रभाकरको अपना जीष्ठ भ्राता, राता, मातुल, श्वशुर, त्राणकर्ता, मातामह, गरु माना और उसी दिनसे इनका 'गुरु' नाम हो गया। पितामह वणजाष्ट और पिटव्य इनको गुरु कहा जा प्रभाकर देखो।। सकता है। गरुतपग देखो। __३ निषेक आदि क्रियाका कर्ता। विधिके अनुसार कूम पुराणमें-माता, मातामहो (नानी', मामी, जो सम्पर्ण निषक आदि कर्माका अनुष्ठान करते और अन्न । मौमा, मासु, पितामही ( दादी), बड़ो बहन और धात्री दे कर पालते हैं, उन्हें गुरु समझना चाहिये (मन ॥१५२), इनको भी गुरु कहा गया है ४ शास्त्रोपदेशक, आचार्य । मनुके मतमे --थोड़ा। माता आदि अर्थ में गुरु शब्द स्त्रोलित है। हिन्दीम हो चाहे ज्यादा, जो वेदका ज्ञान दे कर उपकार करते गुरु शब्दका स्त्रीलिङ्ग 'गुरुआनी' होता है। हैं, शास्त्रानुमार वे ही गुरु हैं। बालक हो कर भी यदि ६ सम्प्रदायप्रवत्त क। ७ धर्मोपदेशक ८ कपि वेद या शास्त्रका उपदेश दे, तो उन्हही गुरु समझना कक्कु, कौंच । रामनि०) ८ वर्ण विशेष, दोघ अक्षर जिम- चाहिये, वे वृहोंक भी माननीय हैं । प्राचीन समयमें की मात्राएं दो समझो जाती है, दा मात्राओंवाला अत्तर भी शास्त्रज्ञ बालकोंमे वृक्षगण उपदेश लिया करते थे जैसे-"लाल" का 'ला'। एक बार जामुमण्डल (घटने) पौर उसे अपना गुरु मानते थे। मनु में इस विषयको पर हाथ फेरनमें जितना समय लगता है, उतने समयका एक आख्यायिका भी मिलती है-"अगिराक एक पुत्र नाम मावा है जिस व धारण करने में दी मात्रा समय वचपनमें ही समस्त शास्त्रोंका पारदर्शी हो गये थे । ये लगता है, उसकी दोपण कहत है। दोष पनखार अपने पितष्योको शास्त्रसे परानुख देख, उन्हें शास्त्र पौर विसमें बु यक्त वर्ण के पहले अक्षरको