पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष षष्ठ भाग.djvu/४२१

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गुरु ४१९ ( लघु होने पर भो ) गुरु कहते हैं। पाद वा श्लोकके एक चिह्न से युक, देवता, अग्नि और गुरुपूजा प्रादिम चरणका अन्तिम वर्ण विकल्पमे गुरु हुआ करता है। श्रद्धाहीन; मन्धया, तर्पण, पूजा और मन्त्र आदि के ज्ञानर्म पिङ्गलमें गुरु वर्ण का संकेत 5 इस प्रकार है: रहित; अलम. विलामो और धर्म होन, इनमें गुरु १. शिव (भारत १९१३०) ११ परम श्वर । ( पात) .... परमेश्वर । ( पात) होने की योग्यता नहीं है। मत्स्यसक्तक मतमे अपत्रक. जा। विष्णा। (भारत १३१४१६५) १४ गृहिनीशन्य, शक्तिविहीन और वषलोपति, ये भी धर्म द्रोणाचार्य । १५ पुष्य नक्षत्र । गुरु अर्थात् वृहस्पति दमके नीय है । ( गघ भ) अधिष्ठाता होने के कारण इनका नाम गुरु हुआ है। ज्ञानाण व मतमे - जो ग्राहस्थ हैं, जनके पुत्र और (ोतिस्ततत्व ) १५ बृहस्पति नामका ग्रह। १७ वह व्यक्ति कलत्र हैं, उन्हें ही गुरु बनाना चाहिये । म गडमालामें जो अपनेसे विद्या, बुद्धि, बल, पद और उनमें बड़ा हो, लिखा है कि, वेणव नीर शव मध्यम गुरु हैं। जो शक्ति- गुरु जन । १८ किसी कला या विचाका मिखानवाला. मन्त्री दीक्षित हैं, व हो उत्तम गुरु हैं। शिक्षक, उस्ताद । १८ मगोतका एक ताल । जिममें जान्त्रिकगण गुरु शब्द के प्रत्ये क वर्ण का अर्थ कर उनका लक्षण करते हैं। उनके मतमे गकारका अर्थ मिर्फ एक ही गुरु वा दीर्घ मात्रा हो, उमका नाम गुरु ताल है। ( मौसदामोदर ) मिडिदाता, रेफका अर्थ पापनाशक और उकारका अर्थ (वि. ) २० अधिक ज्यादा । ( यशतस० ) २१दुर्जर, शम्भ है अर्थात् जो मिड दे सकते हैं पापक विनाश जो मुस्किलमे पचता हो । २२ दृष्याक, जिमका पाक करनको जिनमें क्षमता है और जो मलकार हैं, करना कठिन हो । ( भावप्रकाश ) २३ गुरुत्त्वविशिष्ट, भारी, उन्हों को गुरु ममझना चाहिये। अथवा गकारका अर्थ बजनौ । २४ पूजनीय, माननीय । ( 11 ख ६६ )। ज्ञान, रेफका अर्थ तत्त्वप्रकाशक और उकारका अर्थ २५ गम्भीर । २६ वलवान् ।। शिव तादात्मप्रद है । अर्थात् जो तत्त्वज्ञानको प्रकट कर शिवर्क माथ अभिव करा देते हैं, उन्हें ही गुरु ममझना (१०) २७ तान्त्रिक मन्त्रोपदेष्टा, जो तंत्रकी दीक्षा दे। चाहिये । ( भागममार मारदातिलकके मतमे तान्त्रिक गुरुका लक्षण इस प्रकार है योगिनोतन्त्रमें लिखा है-पिता, मातामह, महोदर जो पवित्र कुलमें उत्पन्न हुए ही, जो शुद्धस्वभाव, जित- कनिष्ठ और रिपुपक्षीय इनर्म मन्त्र लेना उचित नहीं, न्द्रिय, आगमपारदर्शी, तत्त्वज्ञ, परोपकारनिरत, जप और अर्थात् इनको गुरु नहीं बनाना चाहिये । गणशवि पूजाम तत्पर, मत्यवादो और शान्तिप्रिय हैं, वेद और मर्षिणीतन्त्रक मतमे - यति, वनगमी वा आश्रम परि योगशास्त्र में जिनका अधिकार है, तथा जो मर्वदा हृदय त्यागी इनके पास दीक्षित होनेसे अमङ्गल होता है । में देवताका चिन्तन किया करते हैं। उन्हीं को गुरु परन्तु शक्तियामलके मतमे अर्थाचारपरायण, मन्त्री, बनाना चाहिये । इन गुणोंका होना ही गुरुका लक्षण जानो, ममाधियुक्त और श्रद्धाविशिष्ट यतिले मन्त्र ग्रहण है। अत्यन्त बालक, वृद्ध, पङ्ग, कश. विकताङ्ग और करनमे किमी प्रकारका अमङ्गल नहीं होता। कट्रया- होनाङ्ग, ये सव गुरु होने के लायक नहीं हैं । ( र.१४४) मलम लिवा है--भोपत्रीका, पिता पत्र वा कन्याको ___ चिन्तामणिके मतसे - क्षयरोगग्रस्त, दुश्चर्मा, कुनखो, और भाता भाईको दोनित नहीं कर सकता । हां ! श्यावदन्तक, वधिर, अन्धा, कुसुम जे सो आँखांवाला, स्वामी मिद्धमन्य होन पर स्त्रोको दोक्षा दे मकता है। खल्वाट (गजा ) और दन्तुर (जिसके दांत मांगे निकले तन्त्रसंग्रहकारीक मतसे.. तन्वमं जो निन्दनीय हो) इनको गुरु बनाना उचित नहीं गुरुत्री और उनसे दीक्षा लेनका निषध किया गया है, मंस्कारहीन, मूर्ख, वेदशास्त्रविवर्जित, वैदिक और वह कंवल उन गुरुश्रांक लिए है जिनको मन्त्र मिड नहीं स्मात क्रियाकलापशून्य, शुष्कभाषो, कुमित, याजन हुआ हो। मिडमन्त्र होने के उपरान्त फिर कुछ लक्षण कर्मोपजीवोकामी, कर, दम्भी, मत्सरी, व्यसनयुक्त, लपण, देखनेको आवश्यकता नहीं, जिसके पाम जी चाहे सल, नास्तिक, असत्सङ्गकारी, भीरु, महापासपी सी उमौके पास दीक्षित हो सकते हैं । । । नसार )