पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष षष्ठ भाग.djvu/४२२

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गुरु-गुरुकुण्डली कोई यदि व्यक्ति अज्ञानवश निन्दनीय वा वजनीय जैनशास्त्रानुसार ये तीन श्रेणियोमें विभक्त हैं- गुरुकै पामसे दीक्षा ग्रहण कर ले, तो दम हजार गायत्री प्राचाय , उपाध्याय और माधु । १ आचार्य-जो मुनियों- जपरूप प्रायश्चित्त कर उम मंत्रका परित्याग कर मकता के मंधक अधिपति हों और मंधके मुनियों को दीक्षा (शिक्षा) है। (गर्ग,शभिमषगा) प्रायथित्त ( दण्ड) आदि देते हो तथा १२ प्रकारका तप, मत्मासूक्त मतमे निवीर्य पिताका मन्त्र शाक्त और १० प्रकारका धर्म, ५ प्रकारका आचार, ६ प्रकारका शैवाक लियं दोषावह नहीं है; ये लोग पिताका मन्त्र ग्रहण आवश्यक कर्म , ३ प्रकारकी गुमि इन ३६ गुणोंके धारण '. कर सकते हैं। कोई संग्रहकार मत्सासूक्तकं प्रमाण को करनेवाले ही, उन ऋषियोको आचार्य कहते हैं। २ दोक्षाविषयक कोलिक मन्त्र बतलाते हैं और कोई कहत उपाधाय-जो आचाराङ्ग, सूत्रक्तताङ्गः आदि ११ अङ्ग हैं कि. मत्मामूक्तम तागमन्त्रक प्रस्तावमें यह बात कही और उत्पाद, अग्रायणी आदि १४ पूर्व के पाठी हो, उन्हें गई है। बहुतमे तन्त्रों में पिता ज्यं ष्ठ पुत्रको अपन मन्त्रसे उपोधयाय कहते हैं ये स्वयं पढ़ते और अन्य मुनियोंको दीक्षित कर मकता है--0मा विधान मिलता है। पढ़ाया करते हैं। ३ --जो मुनि ५ महा- नवमार) द्रतों और ५ ममितियोंको भलीभांति पालते हैं, और ५ भारतमें अति प्राचीन कालमे ही दीक्षाप्रणानो चन्नी इन्द्रियों को संपूर्ण वशमें करते हैं, और जो ममता, बंदना पा रही है। प्रत्यं क दीक्षामें एक न एक गुरुको श्राव आदि आवश्यक कम और स्नानत्याग आदि ७ प्रकार- श्यकता होती है। अस्त्र, शस्त्र और मन्त्रदीक्षा आदि का त्याग स्वीकार करते ( अर्थात् जो २८ मूलगुणके मभों के एक एक गुरु होते हैं। गुरु के विना काई भी धारक) हैं, उनको माधु कहते हैं। इनके पुन्लाक, वकुश दीक्षा नहीं हो मकती। ऋषियों और तान्त्रिकनि गुरु आदि और भी दश भेद हैं। शिष्यक विषयमें नानाप्रकारके कत व्याकत्त व्याका निर्णय ये तीनों प्रकारके गुरु दिगम्बर ( नग्न ) अवस्था में किया है। उनकी पर्यालोचना करनेमे मान्लम होता है रहते हैं। इस समय से गुरुओं का प्रायः प्रभाव ही है। कि, जिम समय यह देश धर्मावतिको पराकाष्ठा तक २८. पिगडालु, गोल पाल्न । ३० शोमधातु, राँगा। पहुंच चुका था, उम ममय हम देशके लोग गुरुको माधा गुरिल्ला (हिं ) गोरिया दे दी। रण मानव न समझते थे, वल्कि उन्हें देवता ममझ अपन गुमाइन (हिं० स्त्री.) १गुरुकी स्त्री। २ शिक्षा देने- को उनके अधीन मानते थे। उन लोगोंका विश्वाम था वालीखो। कि, गुरु जो चाहें वही कर मकते हैं। ये ही ईश्वर । | गुरुबाई (हि. स्त्री० ) १ गुरुका धर्म । २ गुरुका सत्य, वा हमारे देवता हैं। गुरुगीतामें गुरुके जो लक्षण और गुरुका काम । ३ धर्तता, चालाको। नाम निरुक्तियां लिखी हैं, वे ठीक वेदान्तवर्णित ब्रह्मक | गुरुक ( म त्रि०) गुरु स्वार्थ कन्। अतिशय भारयुक्त, लक्षणके समान हैं । दोला, शिया भादि शाम्दोमं विशेष विपण देग्यो। भारी। २८ जनोंके पञ्च परमेष्ठियोंमेंसे ३, ४थ और ५वें गुरुकगटक ( म० पु०) गुरुः कण्टक स्तत्सदृश मित परमेष्ठी। रखकरगड़थावकाचारमें गुरुका लक्षण इम विशेषो गात्रे यस्य, बहु प्रो० । एक तरहका मय र । प्रकार लिखा है। गुरुकार ( स० त्रि०) गुर भारातिशय-युक्त करोति गुरु- विषयाणाशातीत मिरारम्भाऽरियाः । जान-ध्याम-सयोग कस्तपस्वी म प्रशम्यते ॥१०॥ क-अगा ।१ अतिशय भारयुक्त करनेवाला मनुष्य । २ जो मांसारिक विषयोंके बशीभूत नहीं हो प्रारम्भ- (पु० ) २ उपासना, गुरु प जा। ( ऐमी क्रिया जिसमे हिसा हो) रहित हो, चौबीम गुरुकाय ( स० वि० ) गुरोः कार्यः ६ तत् । १ गुरुका प्रकारके परिग्रहसे रहित हों, ज्ञान, ध्यान और तपमें नव- कतव्य ( क्ली० ) २ गुरुका कर्म । लोन हों, वे हो तपस्वी अर्थात् गुरु प्रशंसा करने योग्य हैं। गुरुकुण्डली ( सं० स्त्री० ) गुरोः वृहस्पतेः कुण्डली, ६-तत्