पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष षष्ठ भाग.djvu/४४५

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गुलाबसिंह के दूसरे दूसरे में निक उनसे ईर्षा करने लगे थे। गुलाब ! अवस्था में प्रतिहि मात्ति दिखलाना उनके लिये अच्छा थोड़े दिनके बाद ही मुझे ला दुर्ग छोड़ भीमवर सुला। नहीं होता। तान खाँके अधीन काम करने लगे। कुछ काल वे कोटाली सुयोग पाकर मिथ दीवानचंद दोनों राजपूत युवकी. दुर्ग में रहते थे । यहांके मरदारसे भी उन्हें अच्छा बनाव को महाराज रणजिसिंहके पास ले गये । पंज' ब- न था । इस लिय उक्त कार्य कोडने के लिये बाध्य हुए। केशरी पहलेमे ही गुलाबके वोरत्वको कथा सुन रहे इस समय वोर गुलाबको चारो ओर निराशाको थे। आज दोनों भाईयोंको सुश्री सुगठित वोरकान्ति देख विषादमय छवि दीख पड़ती थो ‘किसकी सहायता बहुत ही संतुष्ट हुए, और दोनोंको प्रतिदिन ३, २० वेतन लं किस तरह भविष्य उवत करू?" इसी तरहको पर अपना अनुचर बनाकर रखलिया। इमतरह दोनों भार भावना छनक हृदयमें उत्पन्न होने लगीं । हृदयको यांने कुछ समय राजदरबारमं रह राजकीय अदब कायदा व्यथा दूर करने के लिये इस्माइलपुरमें पिता के निकट उप. मोख लिया। १८१२ ई०म दोनों अश्वारोही मेन्यम स्थित हुए। किन्तु यहां आकर भी वे मंमारकी विषम भर्ती किये गये । महागज रणजिसिंह ध्यानसिंहको वेडोसे निवड हो अत्यन्त ही कष्ट पान लग । यहां उनके बहुत ही वाहत थे । डम ममय ध्यानसिंह प्रतिदिन ५, पितान अपने दोनों पुत्रों को उपयुक्त देख टुर्लभ नामक क. प्रौर उनके ज्येष्ठ भ्राता गुलाबसिंह मिर्फ ४, रु० किमी मनुषामे बहुतसे रुपये कर्ज ले उन दोनोंका विवाह पाने लगे । थोड़े ही दिनोंमें दोनोंका वेतन दो गुनामे करा दिया। इम विवाहसे मो गुलाब कुछ भी प्रमन्न तीन गुना तक बढ़ गया । इम वर्ष में अन्तम राजपूत न हुए। उन्होंने देखा कि जिस तरह पिता ऋण जाल वीरने अपने पिताके पाम लगभग तीन हजार रुपये भेजे में जकड़े हुए हैं, सांसारिक कष्ट भी उमो परिमाणमे थे । गुलाब और ध्यानसिंह के गमे उक्त समयमें उनके पिता किशोरसिंहकी मृत्यु हुई। बढ़ता है। १८११ ई०के प्रारम्भमे गुन्नाब एक दिन १८१३ ईमें महागज रणजित्के अनुरोधसे गुलाब मंह पिता बोले-"मुझे यहां रहना अच्छा नहीं लगता है।। अपने बारह वर्षक कनिष्ट भ्राता सुचेतसिंहको दरबारमें यदि आप घुड--मवारका उपयत पोशाक खरीद दें तो लाया। सुचेतमिहने अपने रमणीय सुकुमार कान्ति- मैं एकवार और लाहौर दरवारमें जा अपने भाग्यको गुणसे रणजित्को विमुग्ध कर उनका यथष्ट अनुग्रह लाभ परीक्षा करू" । किन्तु उम ममय उनके पिता किशोर किया। तीन मामान्य राजपूत युवकान लाहोरके दर- सिंत्रके पास एक कौड़ी भी न थी । जो कुछ हो, बारमें शोषस्थान पाया। थोडं दो दिनों में तीनों भाई रुपये लौटकर पानेको कोई मम्भावना नहीं रहने । मभोसे यंठ गिन जाने लगे। पर भी दयालु दुर्लभने फिर भी कर्ज दे गुलाबकी उक्त वर्ष में दामादरमिह और ग्वालमिह लाहोरमें अभिलाषा पूरी की। गुलाब और उनके भाई ध्यान- आये हुए थे। उनका आगमन सुन गुनाबसिंह और ध्यान सिंह मियामोतीसे एक मिपारिमो चिट्ठी ने दीवानचन्द मिहर्क हृदयमे प्रतिहिंमा फिर भो जाग उठो । दोनों भाई मिश्रके निकट लाहोर आ पहुंचे। दीवानचंदने चिट्ठी | पर जा पहु च। दावानच दन चिट्ठा भानग्कुली नामक गम्त पर घोड़े पर चढ़ कर उप पढ़ दोनों भाइयों को बहुत हो खातिर की और उनको स्थित हए । इम स्थान पर मियामोतोके मारनवालीसे यथामाध्य मदद देनेके लिये कटिबद्ध हुए। उस समय उनको भेट हो गई। गुलाबमिरन दामोदरको अपना गुलाबसिंहमे सुना कि उनके परम उपकारो मियां मोती। परिचय देते हुए वन्दकका निशाना माग। दामोदरन विद्रोही दामोदरसिंह और ग्वालसिंहसे मारे गये हैं। आत नाद करते हुए पृथ्वी पर गिर अपना प्राण त्याग यह सुन उन्हें जैसा दुःख हुआ था वह अकथनीय है। किया। तब ग्वालमिहन दोनों भाइयों पर आक्रमण उनके हृदयमें प्रतिहिंसाको प्राग जल उठी थी, किन्तु | किया । किन्तु गुलाबकं दारुण अस्त्राधा इस समय उनने मनको भाग मनमें ही शान्त की । इस लोकको मिधारे। राजपथ पर इस तरहको दुघटना