पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष षष्ठ भाग.djvu/४७४

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४७२ एभोतताति-पृष्टयादि ग्रभातसात (म० स्वा०) ग्रभाताना ग्राहातयज्ञाना तात:, । उवात हाता आइ पार नय नय नियम बनत गय । ६-तत्। गृहीतयज्ञसभूह। मत्मापुराणमें लिखा है कि, "भृगु, अत्रि, वशिष्ठ, विश्व 2ष्टि ( स० स्त्री० ) गृह्णाति मकदुगर्भ ग्रह कर्तरि तिच् कर्मा, मय, नारद, नग्नजोत्, विशालाक्ष. पुरन्दर, ब्रह्मा, पृषोदरादिवत् माधु। १ छोटी गाय जिमने सिर्फ एक कुमार, नन्दीश्वर, शौनक, गर्ग, वासुदेव, अनिरुद्ध, शुक्र बार बच्चा जना हो, एक बार प्रसूत धनु, इसे सतत्प्रसू. और वृहस्पति-ये अठारह हो वास्तुशास्त्रके उपदेष्टा हैं तिका भो कहते हैं। मवत्प्रसूता स्त्री, युवती स्त्री जो | (१)।" इनमें से प्रत्ये क का बनाया हुआ एक एक मिर्फ एक बार प्रसव हुई हो। ३ वराहकान्ता । ४ वेर वास्तुशास्त्र हैं। उनमेंसे मयक्त मयशिल्प, विश्वकर्मा का पेड़। ५ काश्मरी या गांभारोवृक्ष । • कृत विश्वकर्म प्रकाश, विश्वकर्म शिल्प, मानवसारशिल्प 2ष्टिक्षोर ( म० क्ली०) सक्तत्प्रसूतिका गोका दूध । और राजवल्लभमण्डन-इन ग्रन्थों में घर बनाने के नियम गृध्या ( म० स्त्रो० ) वत्मा। विम्त त मिलते हैं। इनके अलावा मत्मापुराण और ग्रष्ट्यादि (म० पु०) यष्टिरादिर्यस्य, बहुव्री० । पाणिनीय | वृहत्संहितामें भी बहुतसा विवरण मिलता है। उपयत . एक गण । राष्टि, दृष्टि, वलि, हलि, विधि, कुद्रि, प्राचीन ग्रन्थों के अनुमार एह निर्माण-प्रणालो लिखी जाती है। अजवम्ति और मित्रयु, इन सभीको गृष्ट्यादिगण कहते हैं। जिम जगह घर बनवाना हो मबसे पहिले वहांको गृह ( म० क्ली० ) रहाते धर्माचरणाय ग्रह क । १ गेह, मिट्टोको परीक्षा करनी चाहिये। विश्वकर्माने मिट्टीको घर, ईट या मिट्टीमे बना हुआ वामस्थान । 'गृह' शब्द परीक्षा करनेको विधि इस प्रकार लिखी है-मिट्टी अहार्चादि गणान्तर्गत होनेसे दोनों लिङ्ग हो सकता है। माधरणतः चार प्रकारको होती हैं,-ब्राह्मणी, क्षत्रिणी पुलिङ्गमें यह शब्द बहुवचनांत है। उसका उत्तर एक वैश्या और शूद्राणी। जिम मिट्टोको रंग मफेद हो और वचन वा दो बचन नहीं होता। अच्छी सुगन्धवाली तथा मधुर रमवाली हो, वह ब्रह्माणी "विशाल रपि भूरिशन:। (माष) है। जिमका रंग लाल हो. रक्तको भौतिकी गन्धवाली पर्याय-गह, उद्दमति, वेश्म. मन, निर्कतन, निशांत, और कषाय रमवाली हो वह क्षत्रिणी है। जो मिट्टी वस्त्य, मदन, भवन, अगार, मन्दिर, निकाय्य, निलय, पीतवर्णवाली, मधुके ममान गधयुक्त और अम्लरमवाली आलय, वास, कूट, शाला, सभा, पस्त्य, सादन, आगार. होती है, वह वैश्या है। तथा जो मिट्टी काली, शराब कुटि, कुटीर, निकेत, माला, मन्दिरा, ओक, निवास सो गधवाली और कड़ाई होती है, वह शूद्राणी कह मंवास, आवास, अधिवास, निवसति, वसति, केतन, गय, लाती है। यह चार वर्णकी मिट्टो यथाक्रमसे चारों कुदर, गर्त हर्म्य, अस्त, दुरोण, मोल, दुर्या, स्वमराणि, व वालोंके लिये प्रशस्त है। चतुरस्र होपाकार, सिंहा- अमा, दम, वृत्ति, योनि, शरण, वरूथ, छद्दि , छया, शम, कति, वृषभमदृश, गोलाकार, भद्रपीठ, त्रिशूल वा लिग अज। सदृश भूमि हो उत्तम होती है। त्रिकोण, शकटाकार, ___ गृहस्थीवाले मब हो गृह ( घर ) में रहते हैं । धनी मृदंगतुल्य. सर्प वा भेक सदृश, गधा अजगर आदिको हो या दरद्र, मब होके लिये ग्रहको आवश्यकता है। भांतिको भूमि तथा धनु वा परुश तुल्य, दुर्गन्धयुक्त भूमि गृहके बिना किमीको भी गुजर नहीं हो सकती। इमी वर्जनीय है, ऐसी भूमि पर गृह निर्माण नहीं करना लिए प्राोंने गृह निर्माण करने की विधि और उसका | चाहिय। जो स्थान देखने में मनाहर हो, उसी स्थान- शुभाशुभ मंस्कृत भाषामें लिखी है। उन सब प्राचीन (१) "भृगुरविवगिरव विश्वकर्मा मयस्तथा । ग्रन्योंको देखनेसे मालूम होता है कि, पहिले गृह वना- माग्दो नमिञ्च व विशाच पुरन्दर: ॥ मेके कोई नियम ही नहीं थे। बादमें दिनों दिन उवति बमा कुमारी नन्दीशः शौनको गर्ग एव च । वा रुचिका परिवर्तन होनेसे प्रार्थीने बहुत गवेषणापूर्वक मासदेवोऽनिरुज । था प्रक-स्पती॥ गृह-निर्माण करनको प्रणाली चलाई पोछे उनहीको | पसाद से विख्याता वास्तुशास्त्रोपदेशका" (महापुराण १५२.)