पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष षष्ठ भाग.djvu/४८६

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४८४ - रहस्थधर्म . कोई भी हो, चाहें बड़ा हो और चाहे छोटा, अब तक ' जिस सुखके लिए सर्वदा लालायित रहती है, विवेको वह शरीर धारण करेगा, जब तक अज्ञानतिमिर | ऋषियोंके लिए वह घोर दुःखकर और निलष्ट है। वे पात्र रह कर वास्तविक पथ पहचानने में असमर्थ है, मुक्ति (मोक्ष) को ही सुख मानते हैं और मबको उप्त सुख तब तक उसे कुछ न कुछ करना ही पड़ेगा। रुचिभेदसे से सुखी करनेका उनका अभिप्राय रहता है, (१) इमी- बा प्रकृतिके भेदसे भिन्न भिन्न कार्य भले हो कर, पर लिए उनके प्रवर्तित मब धर्मोंका हो अन्तिम धाय मुक्ति कार्य अवश्य करना पड़ेगा। ये काम दो प्रकारक होते हैं- है। किमी भी प्रकार अनुष्ठित क्यों न हो, आर्योंके किए एक मङ्गलकर और दूसरा अमङ्गलकर। मनुष्य अपनी हुए मारे काम ही मुक्ति के अनुकूल हैं। धर्म चोर मनि टेवा । अभिलाषका पक्षपाती हो कर कार्याका अनुष्ठान किया मुक्तिका प्रधान महाय अन्तःकरण है। गृहस्थाश्रममें वह करता है। मनुषा अमंगल कार्यांका अनुष्ठान करके नर अन्तःकरण बनता है और मुक्तिका माक्षात् कारण सञ्च कोका दारुणा कष्ट स्वीकार करता है। पर अपनी अभि जानको उत्पन्न करके मानव मुक्तिको प्रथम श्रेणी में लाषको नहीं छोड़ता । परमकारुणिक परिणामदर्शी चढता है। मभी प्राथम या धर्मामें गाहस्थ प्रधान और आर्य ऋषियाने मानवकुल के मङ्गलके लिए अनेक गवेषणा प्रशंसनीय है। इसीलिए मारे धर्मशास्त्रों में गृहस्वधर्म- और योगलब्ध प्र तभाकै बलसे उन मब कार्यांका फलाफल | का थोड़ा-बहुत उल्लेख पाया जाता है। उनमें मनु, स्थिर करके कर्त व्याकर्तव्य निर्णय किया था। उन्होंन | काशीखगड, महाभारत, गरुडपुराणा, याज्ञवल्क्य, व्याम- कर्तव्य कार्याका चार विभागांमें विभक्त कर अवस्था संहिता और गृहत्यागशरमें बहुत अच्छा और विस्तृत अनुसार मानवके लिए अनुष्ठेय वा अननुषठेय नामसे वर्णन मिन्नता है। निरूपण किया है। वे चार विभाग एमे हैं, ब्रह्मचारो, ___ मनुके मतानुसार ब्रह्मचारीको गुरुको अनुमति ने गृहस्थ, वानप्रस्थ और भिक्षुधर्म । मानव जीवनकाल- कर गृहस्थ धर्म अवलम्बन करना चाहिये । ब्रह्मचय को चार भागोमें विभक्त कर यथाक्रमसे चार प्रकारके ममान होने पर गृहस्थधर्म का अधिकारी बनता है। धर्म का अनुष्ठानाधिकार नित किया है। (कौनसे वर्ण ब्रह्मचारी देखे। । गृहस्थधर्म में मबसे पहिले दारपरग्रह वाले किन किन गुणोंमे युक्त होने पर धम के अधिकारी ( स्त्रीका परिग्रह ) करना पड़ता है। दारपरिग्रह विना होते हैं, वह उम उन शब्दों में देखना चाहिये । इन चार | किय गृहस्थ नहीं बन सकता। भार्या गृहस्थधर्म में धर्मामें जो धर्म वा कर्मान्तर मानवजोवनके हितोय | प्रधान सहायक होती है। स्वर उपयुक्त और कार्या विभागमें अनुष्ठेय है, उमे गृहस्थधर्म वा हितोय पाश्रम | धिकारी होने पर भी स्त्रीके दोषसे धर्म में व्याघात होता कहते हैं। आर्य-धर्म शास्त्र मम्मत गृहस्थके अनुषठेय है और वास्तविक मार्ग से विचलित हो कर दुःखकर कास्की पर्यान्लोचना करनसे उनको तीन भागोंमें विभक्त ! कुमार्ग में जाना पड़ता है। इसीलिए आय गण दारपरि किया जा मकता है। तीन विभाग इस प्रकार हैं, ग्रहकं वारेमें बहुतसे नियम बना गये - ह । गृहस्थोंक सामाजिक, शारीरिक और पारत्रिक अथवा गाहस्थको उचित है कि, उन नियमीको · · ध्यान रखते हुए दाम्परि जिन कार्यास समाजको उवति हो और उसके अनुसार ग्रह करें। यार न किया जायगा, तो सस . भी का लाभ हो. वह मामाजिक कार्य है। जिन तरजिससे सुखसे काल विता सके, उपका प्रयत्न गृहस्थको ष आवेंगे। वाहदेव । गृहलक्ष्मी । स्रो कनिम शरीर नौरोग रहे, बलवान् भार कामहा ! करना चाहिय। अलङ्कलर और वस्त्र प्रादि देने में भी का मनष्यके गाईस्थिक कार्य तथा और जिन | कभी मङ्कोच न करना चाहिये, जिस घरमें औरतें पान- • यता पहुचावें, वह शारीरिक र मरे भक) सुपौर न्दित और पाहत होती हैं, उस घरमें देवताओंका वास कायाँक अनुष्ठानसे जन्मान्तरमें 'ते हैं। पाण शान्ति मिले, उसे पारत्रिक कहानी, दुर्वल मात (१) “म बना कामा तय . तबाहर्मोऽवयवातुन यवतः ।" (कासेग).. सांसारिक प्रोतिको सख नहीं