पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष षष्ठ भाग.djvu/४८७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

एहस्थधम ४८ रहता है। अर्थात जिम घरमें स्त्रियां सर्वदा प्रफुल्ल चित्त। अमृत है। भिक्षालब्ध कृत्तिको मृत कहते हैं। कृषिकाय- गरती हैं, उस घरमें स्वर्गीय सुख विराजता है। विना का नाम प्रमृत और वाणिज्यका नाम मत्यानृत है। कारण अवलाओंको यातना टेनेसे, उनके शोकनि:श्वाम- । इनमेंसे पहिले पहिलेको वृत्तियां उत्तम और पिकली से गृहस्थको दिन दिन अवनति होती है। वृत्तियां मध्यम और जघन्य हैं। मेवा करना नौकरी है गृहस्थको पञ्चसूना पापके विनाशके लिए पञ्चमहायज गृहस्थको विपत्तियां मलते इए भी नोकरी नहीं करनो का अनुष्ठान करना पड़ता है। ब्राह्मणके लिए अध्यापन,' चाहिए। हमको बगबर दुवकर, लाघवकारिणों और पित्यज, होम, वनि और अतिथिमस्कार ये महायज्ञ निकृष्टपत्ति ट्रमरी नहीं है। जो गृहस्थ दोन वर्षक करना आवश्यक है। इमको छोड देनेमे गहस्थ मिट्टोमें गृहस्थी चलाने के लिये धन सञ्चय कर रखता है, उसे मिल जाता है। अहत. हत, प्रहत, ब्राह्मया हत और कुशून्नधान्यक कहते हैं । जो एक वर्षके नायक रग्व कर प्राशित ये पांच यन्ज भी गृहस्थके करने योग्य हैं। दृष्ट काम करता है, उसे कुम्भोधानाक कहते हैं । जो तीन मन्त्र का जप करना मो प्रहत है, होमका नाम इत, दिन लायक धन रख कर बाकीममे खर्च करता है, उमे भौतिक बलिको प्रहत, ब्राह्मणांको अर्चना करनेको “वाहिक" और जो दूसर दिनको परवाह नहीं रखता ब्राहम्याहत और पियाडको प्राशित कहते हैं । गृहस्थों उसे अश्वम्तनिक कहते हैं। प्राचीन आयनि इनमें पोछे के लिए अथिलिमकार एक प्रधान कार्य है, प्राण जाने पर पोछ के गृहस्थाको प्रशंमा की है इन चार प्रकारक गृह भी गृहस्थ को इमसे विचलित न रोना चाहिये । जब स्थामसे प्रथम गृहस्थ अर्थात् कुशून्नधान्यकको उच्छ- जैमी वा हो, तब तमो हो चीजामे अतिथिका मत्कार शोन्नता. अयाचित, याचित, कृषि, वाणिज्य और अध्यापन करना चाहिये। मनमे पहिले अतिथिको भोजन कराना ये छह वृत्तियाँ धारण करना चाहिए। कुम्भीध्यानक ऋषि चाहिये, पीके गृहस्थको भाजन करना चाहिये। और वाणिज्य को छोड़ कर बाकोको चार वृत्तियों से पनिधि चार पाड देखा। (जो हो) तीन वृत्तियों को धारण करेगा। बारिक गृहस्थ मनके मतसे -मानवजीवनका चार भागों में विभक्त कृषि, वाणिज्य और याचित इन तीन सयों को कोडकर करना चाहिये। प्रथमभाग-ब्रह्मचारो हो कर गुरुर्क बाकी तीन वृत्तियों में से दो वृत्ति ग्रहण करेगा । घरमें रहना और ययाधिधिसे शास्त्रीका अध्ययन करना और अश्वस्तनिक मिर्फ ब्रह्मसत्र शिलोछको अन्यतमवृत्ति है। फिर गृहस्थ बन कर गृहस्थधर्म पालन करना यह धारण करेगा। दराभाग है। गृहस्थी को "मा काम करना चाहिये अकुटिल शठताशून्य और शुद्ध जीविका ही ब्राह्मणको जिमसे किमो भी प्राणीको हिंमा न हो और रुजगार भो योग्य है । ब्राह्मण गे सुखार्थी, मयत और सन्तोषी बनना वही करना चाहिये : जिमसे किमो भी प्राणीका जो न चाहिए । सन्तोष ही सुखका मूल है विना मंतोष वरखंड दखे । विपत्तिमें भी इस बातको ध्यान में रख कर विका का अधिपति चक्रवर्ती भी सुखी नहीं होमकता वेदमें जिन निर्वाह करना चाहिये कि; जिससे थोड़ी हिंमा हो। जिनके लिए जो जो कर्म बतलाये हैं यदि वैमा मन करतो सब जातिके गृहस्थों को अपना-अपना कार्य करना चाहिए मनुष्य हो कर भी स्वर्गीय सुखको प्राप्त कर देवीक समान कभी भी निन्दनीय कामोंमें हाथ न लना चाहिए। भोग भोग मकते हैं। तथा इन्द्रादि देवकि साथ एकत्र जिन कार्याक करनेमे शरोरको विशेष केश न पहंचे, नाम कर मकत हैं । प्रमंग अर्थात गीत वाद्य और अधि- ऐमा व्यापार करना चाहिए . शरीरको टुर्बल करके जो हित वा अकुन्नोचित कार्य करके अर्थोपार्जन भी नहीं धनका सञ्चय किया जाता है उसमे पाप होता है। करना चाहिए । जोविका निर्वाह के लिए यदि यथेष्ट पैतृक गृहस्थों के लिए ऋत. अमृत, मृत, प्रमृत और मत्यात धन मोजद हा तो अर्थापाजन नहीं करना चाहिए । ये पांच वृत्तियां प्रशंसनीय हैं और नौकरी निन्दनीय है। इन्द्रियों को संयत रखमिक लिए गृहस्थको सदा प्रयत्न करते उञ्छवृत्तिको ऋत कहते हैं। याचा नहीं करमा, मो रहना चाहिये । इन्द्रियोंकी लालसाकी पूर्ति के लिये उसमें Vol. VI. 122