पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष षष्ठ भाग.djvu/४८८

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गृहस्थधर्म आसक्त न हो जाना चाहिये। किसी भी विषयमें हदसे शय्या, ण, जल, अभ्यङ्ग (तेल-मर्दन) पार दोप ये गृहस्थ- म्यादा आसक्ति रखना ठीक नहीं। अगर किसो कारणसे की उबसिके कारण है । ब्राह्मणोंको यथारीतिसे अतिथि किसी विषयमें ज्यादा आसक्ति हो गई हो तो उमका और देवीको पूजा कर रातिमें एक प्रहर वीत जाने के बाद शीघ्रको प्रतीकार कर देना चाहिये। ब्राह्मणांको वेदाधा- यन्न शेष हवि भोजन करके शयन करना चाहिये तथा यनके विरुह किसी भी विषयमें अनुष्ठान न करना शेष प्रहरमें पुन: उठ कर मध्यावन्दनादि कार्यो में लग चाहिये । उमर, कार्य, धन, सम्पत्ति, पाण्डित्य ओर वंशके जाना चाहिये । खलता, परदाराभिलाष, परद्रोह, क्रोध, अनुमार ही वैश, वचन और बुद्धि ग्रहण करना चाहिरे। मिथ्या व्यवहार, अप्रिय आचरगा, ६ष, दम्भ और कपटता जानके विकाश और उवतिके लिए प्रतिदिन शास्त्र और ये नी विकर्म है। यहस्थको ये मन त्याग देना चाहिए। वैटिकनिगम अवलोकन करना चाहिए। शास्त्र के अधा- स्नान, सन्ध्या, जप, होम, वेदाध्ययन, देवाचं ना. वैश्य- यनम टिन दिन ज्ञानको वृद्धि और विज्ञानको अभिरुचि देव, अतिथिमत्कार, और पिटतर्पण --ये नौ आवश्यक होती है। ( मनु । चाय ) कार्य हैं। सत्य, शौच, अहिंमा क्षान्ति जान, दया, काशीखण्ड में लिखा है कि, विना क्लेशक कभी भी धन दम, अस्तेय और इन्द्रिय-संयम ये नौ सब धर्मांक माधन उपार्जन नहीं किया जा सकता । अर्थ के अभावसे क्रिया- स्वरूप हैं। [इस पाश्रममै स्त्रियों का काल बोवम शब्दमें लोप और क्रियालोपकै अभावमे धर्म की हानि होतो है। देखना चाहिये | गृहस्थको सर्वदा इनका अनुष्ठान करते धर्म ही सुखका कारण है, विना धर्म के मुखको प्राप्ति हो रहना चाहिये । (कागोबर २९ अध्याय) नहीं सकती। गृहस्थ आश्रममें धनका उपार्जन, धर्म व्यासमंहिताक मतमे ग्राहस्थ के करने योग्य कार्य तीन साधन और थोडा-बहुत सुख होता है, इसलिए गृहस्थ हैं,-नित्य, नैमित्तिक और काम्य गृहस्थको रात्रिके पाश्रम उत्तम माना गया है। मञ्च माग से उपार्जन शषभागमें गय्या छोड़ कर भक्तिपूर्वक विष्णुका ध्यान किया हा धन पारलौकिक सुखक लिए मत्पात्रमें दान करना, और मांगलिक द्रव्यांका अवलोकन कर आवश्यक करना चाहिये, भूल कर भी कभी असत् पापाचारियोको कर्म अनुष्ठान करना चाहिये। पहिले शोचक्रिया कर- दान नहीं देना चाहियं । विपत्तिके समय अपने परि- के अग्निसेवन, दंतधावन और स्नान करके पवित्र भावों- वारवर्गको पालन करने के लिए और कर्ज चुकाने के लिए से सन्ध्या और देव देवीको पूजा करनी चाहिये । इसके पापाचारियोंको दान देने में कोई दोष नहीं है। यथाः बाद यथारोति वेद वा वेदाङ्ग अध्ययन और इतिहास साध्य परिवारवर्ग का भरण पोषण करनेसे ऐहिक और आदिका अभ्यासकर ब्राह्मणोंको उपयुक्त अधिकारी शिथों- पारिवारिक सुख होता है, और नहीं करनेसे पाप होता को पढ़ाना चाहिये। इसके वाद याग-यन्न आदि कर है। गृहस्थ मात्रका यह कर्तव्य है कि, वह अपने पोथ दैनिक व्यापार ममापन करना उचित है। वर्ग का अच्छी तरह भरण पोषण करे । माता, पिता, (माममभिता ३.) गरुपत्नी, सन्तान, आश्रित, अभ्यागत और अग्नि इन मात धर्म शास्त्रप्रणता दक्षक मतसे-उदयसे अस्तकाल श्रेणियोंको शास्त्रका ने पोष्य वर्ग कहा है। एहस्थोंका। तक ब्राह्मणोंको क्षणभरके लिए भी निष्कि य न रहना कर्तव्य होना चाहिये कि, वे अनाथों को दान दें, पोथ चाहिये। सर्वदा कोई न कोई कार्य करते ही रहना वर्गका समान भावसे प्रतिपालन करें। दयालु व क्षमा उचित है। ब्राह्मणके दैनिक कर्त्तव्य काय-उषाकाल. वान बन कर देवता और अतिथिकी पूजा करें। घर पर मे यथाक्रम शोच, स्नान, दन्तधावन, प्रातःस्रान, मध्या- पतिथिक उपस्थित होने पर गृहस्थको मिष्टबचन बोलना. को उपासना, होमके अनुष्ठान, देवतार्चन, गुरु और पेमष्टि रखना, मन और मुखको प्रसव रखना, अभ्य । मांगलिक द्रव्योंका अवलोकन ; ये सब कार्य दिनके प्रथम खान, स्नेहसम्भाषण, उपासना और अनुगमन करना भागमें करना उचित है। द्वितीय भागमें करने योग्य चाहिये। भासन, पादशौच, यथाशक्ति भोजन, पृथिवी, कार्य ये है-वेदाभ्याम, जप, दान और अध्यापना ।