पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष षष्ठ भाग.djvu/४८९

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गृहस्थधर्म ४८७ तृतीय भागमें करने लायक काम ये हैं;-परिवारवगक आचरण करनेका त्याग करना है. वह अनर्थदण्ड त्याग प्रतिपालन करनेके लिए अर्थोपार्जन और अवदान। व्रत नामक तीसरा गुण व्रत है। सामयिक, प्रोषधोपवास, चतुर्थ भागमें सान और मृत्तिका माहरणा, पञ्चम भागमें भीगोपभोग परिमाण और वेयावृत्य-ये चार शिक्षाव्रत पिटलोक और देवलोक आदिकी पूजा; तथा यथानियम हैं। ब्रतोंको वृद्धि के लिए प्रातः, मध्यात और सायंकाल से पोथवर्गको बाँट कर स्वयं बचे हुए भोजनको खाना इन तीनी सन्ध्याामि एकाग्रचित्त होकर उत्तम, मङ्गल चाहियं । भोजन करके जा तक न वह परिपाक हो, स्वरूप, शरण देने में अद्वितीय श्रीमहंत, सिद्ध, प्राचार्य, तब तक सुस्थचित्तम अवस्थान करना चाहियं । इसके उपाधयाय, मर्वसाधु ( १ ) इन पञ्चपरमेष्ठियोंको नुति, बाद इतिहास और पुराण आदिके प्रमझमें छठा आर स्तुति एवं प्रतिक्रमण आदि आवशाकों को करना और मातवा भाग विताना उचित है। अष्टमभागमें प्रयोज- द्रय क्षेत्र काल भावको शुद्धि देव कर ममम्त प्रारम्भीकी नीय लौकिक व्यवहारका अनुष्ठान, सन्ध्या, उपासना, निवृत्तिपूर्वक दो बामन ( पद्मामन या खगामन ), बारह होम, भोजन और सांसारिक कार्य यथाक्रममे करना और आवत, चार नतिका मन-वचन-कायसे आचरण करना फिर वेदका अधायन करना उचित है। फिर ममय पर सामयिक शिक्षाव्रत है। प्रत्ये क अष्टमो और चतुर्दशीको सो जाना चाहिये. तथा एक प्रहर राति रहते हुए उठना उपवास ( मामी के दिनमें बारह बजे खा कर नवमीके चाहियं । (मा) दिनके बारहबजे खाना; वीचमें कुछ न खाना; सो उप ____ जैनमतानुसार-धर्म दो प्रकारका है, एक मागार वाम है ) करनेको प्रोषधोपवामव्रत कहते हैं । उपवाम या गृहस्थधर्म और दूसरा अनागार या मुनिधर्म । मुनि कान्नमें निरन्तर शास्त्र स्वाधवाय करते रहना चाहिए और धर्म का वर्णन मुनिधर्म में किया जायगा, यहां गृहस्थधर्म किमी प्रकारको मनम कलुषता न लानो चाहिये । अपनी वर्णन किया जाता है। गृहस्थ वह कहलाता है जो आत्मार्क कल्याण के लिए भोग और उपभोगको सामग्रियों. विवाह करके घरहीम रह कर अणुव्रत पालता हा मुनि- का जो प्रमाण करना है, वह भोगोपभोग परिमाणव्रत धर्म की अभिलाषा रखता हो और धर्म अर्थ काम इन है। मंयमी शुद्ध-पवित्रात्मा ( जो सर्व परिग्रहके त्यागी तीनों पुरुषार्थीको समान भावसे पालता हो। ऐसे मनुष्य हों; तथा रागहेषसे रहित ही ऐसे दिगम्बर मुनि) जिम धर्म का मेवन करते हैं, उम धर्म का नाम गृहस्थ अतिथि पुरुषों के लिए जो श्रेष्ठ प्रामुक चार प्रकारके धर्म है। गृहस्थियोंकि बा हव्रत होते है-पाँच अणवत. आहारोंका दान देना है, वह वैयावृत्य नामक गृहस्थोंका तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत। अहिंसा,-कि.मी जीव उपामनीय चौथा शिक्षाव्रत है। इन बारह व्रतीको वा प्राणीको मन वचन कायसे हिंमा न करना, सत्य शक्तिके अनुसार गृहस्थी को अवशा पालन करना चाहिये। दूसरे के लिए लाभदायक मिट बचन बोलना, अम्तय, इन बारह व्रतीमें प्रत्येक व्रतक पांच पांच प्रतीचार बिना दी हुई वस्तुको ग्रहण न करना, ब्रह्मचर्य--अपनो होते हैं । अतोनाररहित जो ब्रत पाले जाते हैं, वे विवाहिता स्त्रोके सिवाय स्त्रोकी मन-वचन कायसे निदौष हैं और जिन व्रतीक पालन करनमै अतोचार इच्छा न करना, परिग्रह परिमाण-जरूरतसे ज्यादा लग जाते है, वे मदोष हैं। वस्तीका संग्रह न करना; तथा प्रात्मामे भित्र पर ट्रयसि "या दधाति रो पृतं भावकव्रतमचित । ममत्त्व भाव न रखना, --ये पॉच अणुव्रत है। तोन गुण- मामर बिर प्राप्य यात्यमो मोसमा । व्रत ये हैं, दिग्व त, देश :त, और अनर्थदंडवत । दिशाओं- (मभाषितरवमन्दोदन .) का प्रमाण करना अर्थात् मैं अमुक दिशामें इतनी दूर अर्थात जो पुरुष इन पवित्र व्रतीको निर्दोष रीतिसे सक जाऊंगा-ऐसे प्रमाण करना; सो दिगवत है। अमुक (१) जपने का मन्त्र इस प्रकार है-थों पमा परहसाणं यामा मिला देश तक जाऊंगा ऐने नियम वा यम करने को देशवत चमा चार याय' मा उमाझा पमी लोए सव्यसाह पयाँ कहते हैं। पापके बढ़ानेवाले पाँच प्रकारके अनर्थ दण्डके । नमः मिझ भ्यः' चादि ।