पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष षष्ठ भाग.djvu/५११

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

गोंदला-गो ५.८ गौदला (हि. पु. ) गुन्द्रा, जन्लाशयोंके किनारे होनेवाला। निष्पव गोशब्दको व्य त्यत्ति लभ्यार्थ “गमनकर्ता" धर बड़ा नागरमोथा। इसकी ऊचाई लगभग एक गजी कर ऐमा लिखा है। वाचस्पत्यमें गो शब्द देखा। होती है। १ स्वनामख्यात चतुष्पद पशुविशेष, वृष तथा गौ, गोंदा (हि. पु.) १ भुने चनका बेसन । यह पामोमें चौपाया पशु, बल और गाय, मवेशी। (Bovina) स्त्रोगो- गूध कर बुलबुलों को खिलाया जाता है। २ गारा का पर्याय-माहेषो, मौरभेयी, उसा, माला, शृङ्गिणी, मिट्टीका कपमा । अर्जुनी, अनया, रोहिणी, माहेन्ट्री, इज्या, धनु, अन्ना, गोंदो ( हिं० सी० ) एक तरहका पड़ जो मौलमिरोके दोग्धी, भद्रा, भूरिमही, अनडुही, कल्याणी, पावनी, गौरी, मदृश होता है। फागुन चैत मासमें इसमें लाल रंगके | सरभि महा. विलिनाचि, सुरभी, अनड्राही, हिड़ा, अधमा, छोटे छोटे पुष्प लगते हैं। इसके फल पुष्य छाल आदि बहुला, मही, अदिति, इन्ना, जगती और शर्करी है। औषधक काममें पाते है । यह जङ्गलों तथा मैदानों में पुगोका पर्याय अमान पदमें टैग्यो। गृहस्थकि लिए उपजता है। गोके जमा उपकारी पशु मरा कोई नहीं है । वृहत्म- गोंदोला (हिं. पु.) वह जिसमें से गोंद निकलता हो। हिताम इमका शुभाशुभ लक्षण इस प्रकार लिखा है- यथा --बबून्न, ढाक प्रभृति । जिम गौ के दोनों नेत्र रूक्ष और मूषिक सदृश हो तथा गो ( मं० पु० स्त्री०) गच्छति गम कर्तरि डो। यहा उनके कांगमें मर्वदा मल देखा जाता हो, तो वह गौ गच्छत्यनन वृषस्य यानसाधनत्वात् स्त्रीगवाथ दानन स्वग अशुभममझी जातो है। जिन गौओंको नामिका विस्वत, साधनत्वात् तथात्व। गो शब्द योगरूढ़ है। 'हढा गवा शृङ्ग प्रचनशील, वर्ण गधके मदृश तथा देशकरटा तुस्स न्यः प्राका यौगिका: पाचकादयः (" (याकरण) वाचस्पत्य गोशब्द हो एव जिनकी दन्तसंख्या १०, ७ या ४ हो, मुगड तथा की व्य त्पत्ति प्रदर्शन स्थन्न पर अालङ्कारिक प्रधान दर्पण- | मुख लम्वमान, पृष्ठ विनत, ग्रीवा हम्व और स्थूल रहे, गति कार विश्वनाथको भूल पकड़ कर कहते हैं कि, 'गमः । मध्यम तथा खुर विदारित हो, वे गौ रहस्थको अमल धातुकै उत्तर करणवाच्चडो प्रत्यय होनम गोशब्द नि उत्पादन करतो हैं। जिम गौका जिहा कृष्णवर्ग और पन्न होता है । उणादि प्रत्यय कर्तृवाच्यमें हो एसा कोई पोतमिथ, गुल्फ (एडी) अतिशय सूक्ष्म वा स्थल ककुद नियम नहीं है"। किन्तु दर्पणकारका कथन है कि (धौना अपेक्षाकृत वृहत्, दह क्रश तथा कोई एक अर "यदि व्य त्यत्तिलभ्य अथ को हो केवल मुख्याथ कहकर से होन हो, तो वह गाय ग्रहस्थ के लिए मङ्गलकर नहीं स्वीकार किया जाय तो “गो शेते" इत्यादि स्थलमें भी है। गायक विषयमें जो लक्षण कह गये हैं, उन लक्षणों यह लक्षण हो सकता है। गम धातुके उत्तर डी प्रत्यय के वृष भो अशुभप्रद है। होनेसे निष्यन गो शब्दके शयनकालमें प्रयोग लक्षण जिम बलका मुख स्थल और अतिशय दीर्घ हो, व्यतीत असम्भव है।' वाचस्पत्य के मतसे दर्पणकारका क्रोडदेश शिराजालसे परिव्याप्त हो और गण्डदेशका स्थ स ऐसा कहना भूल है, यह अनवधानतासे अथवा विना शिरासमूह देखा जाय तथा जो बैल स्थानत्रयमें मूत्रत्याग समझ बुझ लिखा गया है, क्योंकि करणवाच्यमें दो करता हो, उस बलको अशभकर जानना चाहिए। प्रत्यय होनसे निष्पव गोशब्दका शयनकालमें प्रयोग होनेमे | जिसके नव मारिके जैसे तथा शरीर कपिल वर्ण का हो किसी तरहकी वाचा नहीं है। कटुवाच्य उणादि प्रत्यय से ही करट कहते हैं । एमा बल अशुभ समझा जाता हो हो नहीं सकता ऐसा कहौं बचन नहीं हैं | भाम- है। केवल ब्राह्मणों के लिये उक्त लक्षणका बैल प्रशस्त है। चाचादयः । पा ३५॥ सूत्रके अनुसार केवल संप्रदान वृषके प्रोष्ठ, तालु और जिला कण वर्णक रह तथा मर्वदा पौर अपादानवाच्यमें उणादि प्रत्यय नहीं होता, किन्त निदामण वाम चलता हो तो वह बैल अपने मायके इसके अतिरिक्त कर्त कम प्रभृति समस्त वाच्यमें उणादि सब मवेशोको नाश करता है। जिस बलका विष्ठा, मणि प्रत्यय लगा ही करता है। दर्पसकारने कर्तृवायमें | और शृङ्गम्य ल, उदर श्वेतवर्ण तथा दूसरे अङ्गका वर्ण ___.1 VI 128