पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष षष्ठ भाग.djvu/५२२

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५१. गोपा नाई अलौकिक रूपलावण्य या स्वर्गको चली गई। इससे उनकी आराधनासे संतुष्ट हो भगवतो भो वालिकाभषमै तीर्थ का नाम मुशमिष्ठ हुवा।' | आविर्भत हुई एवं मुनिको अनिरुद्धको आराधना कर- (महाद्रिस्व गड़ मकर क स० (१०) | नकी अनुमति दी। ब्राह्मण देवोके आदेशसे अनुरुद्धको 'चन्द्रचूड़क ईशान कोणमें मूलगङ्गातीर्थ है । यह उपासना करने लगे, तथा उनकी आराधनासे मंतुष्ट हो शिवजीको जटासे निकली है। एक मास इसमें स्रान करने अनिरुद्ध साक्षात् हुए। मुनिने शान्तादेवीक माथ उन्हें से ममम्त रोगीका प्रतिकार होता है। इसके स्रानमे इस स्थान पर रहनको प्रार्थना की। तभोसे शान्तादेवी माध्वो वीरप्रमविणी, दरिद्र धनवान्, क्षत्रिय राजा और | तथा अनिरुद्ध इस स्थान पर अवस्थान करते पा रहे हैं। राजा सम्राट हो जाते हैं। शकुन्तलान इसमें सान कर | इन्हें छोड़ विघ्नराज और भूतनाथ ये दो देवता भी इम राजचक्रवर्ती पुत्र पाया था। जो मूलगङ्गाके जन्लमें स्नान क्षेत्रमें नियत अवस्थान करते हैं। यहां देवदर्शन, जप और कर चन्दचड़ दर्शन करता, वह शिवलोकको प्राप्त | होमादि करनेमे अनन्त फल होते हैं।' ( मागायमा० ) होता है। शान्ता अभी शान्ता दुर्गा नाममे ख्यात है। 'चन्द्रचूड़ के पथिममें मालती नदी है। इमकै जलमे वरुणापुर-किमी समय वरुणको नगरी में जा बहुत स्रान कर चन्द्रचूड़ अवलोकन करनेसे मुक्ति प्राहा होतो से मनुषा परशुरामको उपासना की थो । रामजीने संतु' है। स्वयं शिवजोन इम तीथ को निर्माण किया था।" हो वरुणको एक पुरी निर्माण करनेको अनुमति दी (माट्रि मनात कमार । ८ अ.) वरुणने भी अपना पूर्व सदृश एक मनोहर पुर बन 'नागाहय या नागेश-दुमका मन्दिर गोआवासीके दिया। परशुरामन खुश हो उस पुरका नाम वरुणापु लिए प्रसिद्ध है । मह्याट्रिखण्ड में लिखा है...."क्षत्रिय रखा था। किमो एक वष वैशाख मामक शुक्रवारक कुलान्तक परशरामने मद्याट्रिक पथिममें समद्रके निकट | नवमी तिथिमें सात दिन पर्यन्त रामोत्सव होता था अधाशी नदी के तौर पर एक मनोहारिणीपुरो निर्माण की वरुणापुरवासी आमोदमें मतवाले हो गये थे। ण थी। गरुड़के भयमे कातर हो नागीन इस स्थान पर रह समय समुख नामक एक दैत्य मौका पा कर मबको कर एक शत दिव्य वर्षे तपस्या को थी। तपस्यासे सन्तुष्ट हो पहुंचाने लगा। पुरवासियोंने असुरके हाथमे रक्षा पाने परशुरामने साँको गरुड़से रक्षाके लिए कैलास जा शिव । लिये परशुरामको उपासना की। परशुरामन दैत्यनाश- और पार्वतीको लाया था। शिवजी और पार्वतीके इस | का उपाय करनेके लिये एक देवम ति स्थापन कर क्षेत्रमें पहुंचने पर नागगण स्तव करने लगे। मपाक म्तव सकल पुरवासियोंको उनको आराधना करनेको अनुमति से तुष्ट हो एवं परशुरामकी प्रार्थना पर शिव और पार्वती | दी थी। इन्होंको उपासनासे संतुष्ट हो देवीने भीषण इस तीथ में रहने लगे। एक दिन खगपति गरुड सुधात खाजाघातसे माघ मासको शुक्लपक्षीय पष्ठी तिथिमें उस हो मर्प खानको इच्छासे इस स्थान पर पहुंचे। मोने असुरको विनाश किया था। उक्त तिथिमें रस देवीको सोचा कि अभी शिवजीको आश्रय सिवा और दूसरा । भाराधना करनेसे मनोभीष्ट पूर्ण होता है। दुर्गा, भद्र- कोई उपाय नहीं है इसलिए समस्त सर्प शिवजीके काली, विजया, वैष्णवी, लष्णा, माधवी, कन्यका, माया, शरीर पर चढ़ उन्हें जोरसे पड़ा। शिवजीने कहा नारायणी, शान्ता, शारदा, अम्बिका, कात्यायणी, वाल. "गरुड़ ! तुम इम तीर्थ स्थित सपाको भक्षण मत करो।" दुर्गा, महायोगिनी, अधोखरी, योगनिद्रा, महालक्ष्मी, महादेवको आचासे गरुड़ कुछ न कर सका । सभी कालरात्रि और मोहिनी इन नामोंसे उक्त देवीमूर्तिको निर्भयसे रहने लगे। इसी कारण इस तीथ का नाम पाराधना की जाती है। इस देवी मूर्तिका नाम महा- नागाहय या नागेश पड़ा। फणिगण-विभूषित शिब और। लसा है । ( कण पु पथ) गोपाके रहनेवाले हिन्दू इन्हें पावती नियत इम स्थान पर रहने लगे। इसके बाद मालसा" कहा करते हैं। भान्स नामक कोई मुनि भगवतीको पाराधना करते थे। मानीश-किसी समय शिवजी पार्वतीके साथ धत