पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष षष्ठ भाग.djvu/५४४

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गोव. ५४३ "गाडा दुनको नाना गोवा माथि माति:। (भाग० २१) . देशक लोग 'मेरा शाण्डिल्यगोत्र है', 'मेरा गोत्र काश्यप (लो. ) गवते शब्दायतेऽनन गकरण । ग-विति । है', 'मैं गर्ग गोत्रका " इस प्रकार भित्र भित्र गोत्रीका वठि यमि यदि चादिमा म्व उप ४।१५। २ आख्या, नाम । ३ | उल्लेख करके अपना परिचय दिया करते हैं। सम्भावनायबांध, वह ज्ञान जिसमें कुछ मदेह हो। ४ बौधायन, आपस्तम्ब, मत्याषाढ़, कुटिल, भरद्वाज, कानन, वन, जङ्गल । ५ क्षेत्र । ६ मार्ग, सड़क । (महिना) लौगाक्षि, कात्यायन और प्राश्वलायन आदिके रचे हुए ७ राजाका छन । (म) ८ मद्ध, समूह । ८ वृद्धि, बढ़ती श्रोत्रसूत्र, मत्स्यपुराण, महाभारत आदि इतिहास और मनु • (शब्दन्ति ।।) १० धन, वित्त, दोलत। (विश्व ) गवर्त शब्दा- आदिको रची हई म्म तिनोंमें थोडा-बहत गोत्रका कथन यत पूर्वरुषान यत्, पुत्र । ( भरत )११ बन्ध, भाई । १२ । मिलता है। इनमें परस्परमें कुछ विरुद्ध कथन भी है, एक प्रकारका जातिविभाग। १३ वश, खानदान ।। जिनका वास्तविक अथ मर्वसाधारण समझ नहीं आ संस्कृत पर्याय-मन्तति, जनन, कुन्न, अभिमान, अन्वय, मकता है। इसलिए और शास्त्रीको आलोचनाको शिथि. वश, अन्ववाय, मन्तान । (पभर०) लता देखकर पण्डितप्रवर पुरुषोत्तमन 'गोत्रप्रवरमञ्जरी' ___अति प्राचीन कालसे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और नामका एक संस्कृत ग्रन्थ लिखा था। इमक मिवा धन शूद्रों में गोत्रका नियम वला आ रहा है । प्राचीन आर्य जयकृत धर्म प्रदीप, बालभट्ट और महादेव दैवज हाग शास्त्रीको पर्यालोचना करनमे जाना जाता है कि. पहिले | रचित गोत्रप्रवर, विश पण्डित कृत गोत्रप्रदीप, अनन्तदेव, गोत्रका नियम नहीं था। क्रमशः मनुष्यमख्या वृद्धि होत आपदव, केशव, जावदेव, नारायणभट्ट, भट्टोजो, माधवा रहनेमे, आर्य ऋषियोंन गोत्रनियम बनाये ओर उमी चार्य और विश्वनाथदेव रचित गोत्रप्रवरान य, लक्षण- समयमे पायाम गोत्र नियम चन्ना पा रहा है। दि. जैन भट्ट रुत प्रवररत्न और गोत्रप्रवरभास्कर तथा कमलाकर- शास्त्रों में तमा पाया जाता है कि, प्रथम तोर्थ र ऋषभ कृत गोत्रप्रवरदगा नामक कक ग्रन्थ भी मिलते हैं। देवकै पत्र भरत चक्रवर्तीन जाति आदिक नियम चलाये इनमेंसे 'गोत्रप्रवरमञ्जरी' ही सबमे थष्ठ है। इममें थे । (पादिया) हिन्दयां को जात कम से लेकर अन्त्य ष्टि ममम्त पुरातन मतीको पर्यालोचना और मौमामा को तक प्रत्यक कार्य में हो अात्मपरिचय देते ममय गोत्रका उल्लख करना पड़ता है। गोत्र का उलख करत ममय यदि | गोत्रको आलोचना करनमे पहिले इन बातका भी कुछ भूल या गड़बड़ होनमे किमी भो कार्य को मिद्धि | निर्णय कर लेना चाहिये कि, गोत्र किम ची का नाम नहीं होता। इमक मिवा विवाहांमें भी गोत्रको जरूरत है और उसका लक्षण क्या है ? अभिधानके कर्ताधीन पड़ता है। मनु आदि स्मृतिप्रणताजानः बौधायन, आप- गोत्रका लक्षण जैसा लिखा है, उमके अनुमार तो गोत्रांक स्तम्ब आदि सूत्रकारोंने और मत्स्य आदि पुराणकारोंने भेद असंख्यात हो जाते हैं, अर्थात् मब हो अपने अपने ममान गोत्राम विवाह निसिद्ध बतलाया है। भ्रम या पुरग्वाओं में से किसी एक का नाम लेकर अपन गोत्रका और किमो कारणसे यदि मगोत्रमें विवाह हो जाय तो परिचय द मकते हैं। ऐमा होनसे तो गोत्रका नियम नियमानुमार प्रायश्चित्त करना पड़ता है। प्रायश्चित्तके रहना नरहना बराबर ही हो जाता है। लौकिक व्यस्म बाद उम स्वासे माता ममान व्यवहार करना पड़ता हारमें भो एमा नहीं पाया जाता, मब हो लोग अति है। कभी भी उम स्त्रोको ग्रहण करना उचित नहीं और प्राचीनकालमे चला हुआ एक हो नामसे गोत्रका परिचय स्त्रोको भा उम पुरुषको पुत्रवत् देखना चाहिये । इस देते हैं। कोई भी बदल कर दूमरा नाम नहीं कहता। लिए प्रत्ये क हिन्दू को अपने गोत्रके विषयमें खूब ज्ञान | इसलिए यह कहा जा सकता है कि, अभिधानके रात- रखना चाहिये। मार गोत, व्यवहार नहीं होता, अर्थात् इस गोत्र २ लार मेदिनी और अभिधान चिन्तामणि आदिक कर्त्तानों मामूलो तौरसे वश या सन्तानका बोध नहीं सनेमेण्ट, के मतसे गोत्र शब्द का अर्थ मन्तान या वश है। इस "चल्य पोय पण त गात्रम् (पाणि ।१।६९) पाणिनि११०७२१