पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष षष्ठ भाग.djvu/५६७

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गान्धलगार-गोप घास फंस के घरमें रहते तथा कंगनीके दाने नित्य पाहार । गोदुह, प्राभोर, वल्लब और गोपाल है। माधारणतः करते हैं। सिर्फ पर्व दिनमें ही मिष्टाव और मांम खाते । ग्वाल नामसे मशहर है। पश्चिमाञ्चलमें मब जगह आहौर हैं। मादक सेवनमें ये बड़े पटु हैं। पुरुष जाति भी और दाक्षिणात्यमें गाठली नाममे अभिहित है। कानमें पीतल के कुण्डल धारण करते हैं। इनके गुरु नहीं और और रावन देखी। होते हैं, तब कभी कभी कोई निकष्ट ब्राह्मण इनका पुरो. पूर्व कालसे यह जाति गोप और आभोर नामसे हित हो जाता है। प्रमिद्ध है। मनुके मतानुमार ब्राह्मणके पौरस और अम्बष्ठ सन्तानके भूमिष्ट होने पर उमको नाड़ी काट कर कन्या के गर्भसे आभीरका जन्म हुआ है (१ । परशुराम- फेंक हो जाती और एहस्थ जातिभोज देते हैं। वें दिन- पद्धतिक मतसे कसेरी और मणिकार (जहोरी) के कना- को शिशुका नामकरण और दोल रोहण होता है। इसके से गोप जातिको उत्पत्ति है। (२) किन्तु कट्रजाम- बाट विवाह पर्यन्त और कोई उत्सव ये नहीं मनात । लोक जातिमालामें लिखा है कि जलाहा और मणिवन्ध- इनके विवाहके पूर्व दिन वर और कन्याके शरीरमें हल्दो कनाके मंभोगमे गोपजीवका जन्म ग्रहण हा है (३)। लगाई जाती है। विवाहकालमें गॉवका ग्रहविप्रा ब्रह्मवैवर्तक मतानुमार श्रीक्ला के लोमकूपमे गोपगण वरको पूर्वमुख और कन्याको पथिममुख खडा कर मन्त्र उत्पन्न हुए हैं ( ४ )। ये मतशूट्रमें गण्य हैं। पाठ करते और शरीर पर धान फेंक कर आशीर्वाद देते यह जाति पूर्व कानमे हो गोपालन करतो आ रही हैं। तदन्तर दोनों पक्षका जातिभोज हो विवाह उत्सव है, इमोलिए ये गोप कहलाये। मनुम हितामें लिखा हो जाता है। इन लोगोंम बाल्यविवाह, विधवा-विवाह है कि गोप व तनप्रार्थी नहीं है, वह गोस्वामोकी अन- गोर पुरुषके लिए बहुविवाह प्रचलित है। जातिमें मति ले दश गौत्रोंमेंसे एक श्रेष्ठ गौका दग्ध दोहन कर किमी तरहको घटना हो जाने पर पञ्चायतमे उमको ले जा मकता है। व्याममंहितार्क विकत वचन में ये मीमामा होती है। ये मुर्देको जलाते हैं। ममम्त हिन्द अन्त्यज जातिके मध्य गण्य हैं। किन्तु यम, पराशर, मनु पर्व में और मुमन्नमानके मोहर्रममें योग देते हैं। प्रभृति महितामें ये शूद्र और भोज्याबक जैसे गृहीत प्रतिदिन चार पांच गोन्धलगार मिल कर वाद्यादि हैं (५)। साथ ले हार हार घूमा करते हैं। किमीको इच्छा हो वर्तमान ममयमें इम जातिके मध्य अनेक श्रेणी और जाने पर ये उमर्क प्राङ्गणमें समस्त रात्रि गोन्धल नाच शाखाभेद देखे जाते हैं। बङ्गन्देशमें ग्वालाको कई एक करते हैं । प्रभात होने के कुछ पहले इनमें से एक व्यक्ति श्रेणियाँ हैं-राढ़ा, वागड़ो, वागेन्द्र, पाव या वनब, अम्वा देवोको लेकर उन्मत्तको नौई कूदता और नाचता गौड़ या घोषग्वाला, मधुग्वाला, गुमिया, करजी, काजाल तथा भविष्यत् वाक्य कहना प्रारम्भ करता है। इस समय (१) "भामराबाट कयायाः। ( मन.१.१५) प्रत्येक दर्शक उमके चरण पर दो दो पैसे रख उसे प्रणाम ()"मणिपुचो कांस्यकारात गोपालम्य च सम्भव:।' करता है और फिर वह गोन्धलगार जलती हुई ममान्न (भार्गवरामकत नातिमाला) ले अपने शरीरमें लगा कर खड़ा रहता है। इसके बाद (:) "मणि न्ध्या तन्तुमाया गायकी वस्य सम्भवः । बद्रनामलका जातिमाया। देवीके शरीरको हल्दी ले आगन्तकोंके कपालमें स्पर्श करता (४) "कण्य लोमकूपेमाः मदाः गायगणे मुने। और अपुत्रक स्त्रियोंको पुत्रोत्पत्र तिथि कह दिया करता भाविव भव रूपेण वैशेनेन च नाममः । विगतकोटीपरिमित: कमनकी ममार। है। प्रातःकाल होने पर वे विदाई ले अपने अपने घरको सप्याविनिय सखातो व वामां गया तो ( 101-31) घले आते हैं। "गायनापिभिसाप तथा मोदक कूपगे। गोन्योधस् ( सं० पु० ) गमनशोल, जो दुग्धमें प्रवाहित हो। सत्य मा विमेन्द्र सतरदाः परिकीर्तिताः ॥" (बाख०१०१०) गीप (स० पु०-स्त्री.) गा पाति रक्षति गो.पा-क । १ जाति (५) "कासमापितगीवाल कुलमिवाधAtI विशेष, ग्वाला, पाहोर । इसका संस्कृत पर्याय-गोसय, ने शूद्रे भोज्याना यामीन निवेदयेत् ॥ (यम २., पराशर ११४९०) Vol. VI. 142