पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष षष्ठ भाग.djvu/५९०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

. . . किमो गोमूवो-गामेध इमे बर्धामूतन भी कहते हैं। मणि पहनना नहीं चाहिए, इसके धारण करनेसे गोमूत्रप्रकार: गोमत्र प्रकारार्थ कन् टाप । अत सम्पत्ति, भोग, वन एवं वीर्य नष्ट हो जाते। गोमेद इत्वच । ३ गौम के महश वक्र और सरल प्रचारादि। मणिको परीक्षा अग्निमें की जाती है । शुद्ध गोमेद मणि- गोम त्रो ( मं० स्त्री० ) रक्त कुन्तथिका, लालकुल्थो। का मूल्य सुवर्ग से हिगुण है । चारो प्रकारके गोमेद धारण गोमृग ( म'. पु० स्त्री० ) गवाकृतिम गः। गवय, नील योग्य हैं। सुश्रुतके मतसे गोमेद मणिसे अस्वच्छ जल गाय । परिष्कार हो जाता है। गोमेद ( म० पु० ) गां जल मेदयति संहपति गो-मिद (क्ली. )२ पीतमणि । ३ काकोल नामक विष जो गिच अच । १ गोमेदकमणि । ग मदक २ होपविशेष। काला होता है। ४ पचक नामक माग। युक्तिकल्पतरू ग्रन्थमें लिखा है कि पूर्व ममय इस गोमेटमबिभ ( म० पु. ) दृग्धपाषाण होपमं गोपति नामके एक राजा रहते थ, इन्होंन गोमत्र गोमध ( म०प०) मध हिमायां भाव घञ । गवां मधो नामक यन्न किये थे । गोपति अग्नितल्य तेजस्वी आतथ्य ___ हिंमा यत्र, बहुव्री०। यज्ञविशेष । इमका दूसरा नाम गण के यजमान थ। किमी ममय महाराज गोपतिन गोमवयन्न भी है। यह यज्ञ कलिकालमें निषिद्ध मम यज्ञमें भृगुवंशीयोंको वरण दिया था। इस कर वर्तमान ममयमै जिन ग्रंथीम यज्ञादिका विधान पर गोतमने क्रुद्ध होकर शाप दिया जिससे गोपतिका पाया जाता है, उसमें गोमेध यजका विशेष विवरण नहीं अकालमुत्य हुश्रा एवं मुनिक अमोघ कोपाग्निसे यज । है। कात्यायनश्रौतसूत्रम गोसवयन नामम इम यनका की ममम्त गायें भस्म हो गई। भम्मीभूत गोका क्षार उल्लख है। उक्त दीपक ममस्त भूभाग पर आच्छादित हुआ जान कर मनुकं मतसे अज्ञानक्कत ब्रह्महत्याका प्रायश्चित्त के लिये होपका नाम गोमेद पड़ा। (यक्ति कल्पतर) ३ प्रसहोपका अश्वमेध जैसा इस यन्त्रका अनष्ठान किया जाता है। एक वर्षपर्वत। (लो) ४ तेजपत्र । इमको अनुष्ठान प्रणाली अश्वमेध मदृश है। गोमेदक ( म० पु. ) गोमेद स्वार्थ कन् । १ स्वनामख्यात कात्यायनश्रोतसूत्रमें हम यन्त्रका विधान इस मणिविशेष, गोमेद । इमका पर्यायः---गहमणि तमोमणि "" तरह है-- स्वर्भानव और लिङ्गस्फटिक है। इसका गुण-अम्ल, “उक्यो गासवो ऽयुसदचियः । (कात्यायन २२॥११॥५) उष्ण, घायक कोप और विकारनाशक, दीपन, पाचन अर्थात् गोसव नामक यन्न उक्थ सस्थित हुमा करता एवं धारण करने पर पापनाशक है। ( जनप्रगट ) हिमा लय पर्वत पर तथा मिन्धु नदीमें गोमेद मणिको उत्पत्ति है। *य देखा। इस यन्नमें दश हजार टुग्धवती गाय है। यह मणि स्वच्छकान्ति, भारयुक्त, निग्ध, दीप्तियुक्त । । दक्षिणा देना पड़ता है। एवं शुक्लवर्ण वा पीतवर्ण होती है। इस प्रकारका किमी किसी मुनिक मतसे केवल वैश्यगणके लिये गोमेद अच्छा समझा जाता है। इसके चार भेद हैं। हो यह यज्ञ करमेका विधान है, दूसरा कोई वणे इस यथा-शुक्लवर्ण गोमेदको ब्राह्मण, रतवर्ण की क्षत्रिय, यज्ञका अनुष्ठान कर नहीं सकता। दूसरे दूमर मुनिका ईषत् पीतवण को वैश्य एवं ईषत् नौलवण गोमेदकको कथन है कि ब्राह्मण क्षत्रिय प्रभृति अपर वर्ण भी गोसव शूद्र जाति कहते हैं। गोमंद मणिकी छाया भी चार यन्त्रका अनुष्ठान कर सकते हैं। मनुसंहिताके ११।१५ प्रकारको है, यथा-खेत, रक्त, पोत और करण । गुरु या श्लोकको व्याख्यामें टीकाकार कुल्लू कभने इस यज्ञको भारयुक्त, प्रभाशालो, एकवर्ण, स्निग्ध, मृदु और अधिक वणिक अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य इन तीन पुरातन एवं स्वच्छ गोमेद धारण करना चाहिये । इमर्क वर्णीका अमुष्ठ य कहा है। कात्यायनके मतानुसार राजा धारणसे लक्ष्मी और धनधान्यकी वृद्धि होती है। लघु, और प्रजा जिसको सम्मान करें वह गोसवयनके अस्ि कुस्मिताकार, अस्वच्छ, स्ने होपलिल और मलिन गोमेद कागे हैं, दूसरा इस यन्त्रका अनुष्ठान कर नहीं सकता